परिवार गृहस्थी पर संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित
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अविनीतः सुतो जातः कथं न दहनात्मकः ।
विनीतस्तु सुतो जातः कथं न पुरुषोत्तमः ॥
जैसे घेटे (अवि) पर बैठा हुआ (नीत) अग्नि है, वैसे अविनीत पुत्र को भी दाहक क्यों न कहना ? वैसे हि वि (गरुड) पर बैठा हुआ जैसे (नीत) पुरुषोत्तम है, तो विनीत पुत्र को पुरुषों में उत्तम क्यों न कहना ?
यदि पुत्रः कुपुत्रः स्यात् व्यर्थो हि धनसञ्चयः ।
यदि पुत्रः सुपुत्रः स्यात् व्यर्थो हि धनसञ्चयः ॥
#यदि पुत्र कुपुत्र हो तो धनसंचय व्यर्थ है; और यदि पुत्र सुपुत्र हो, तो भी धनसंचय व्यर्थ है ।
वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च ॥
सौ मूर्ख पुत्रों से तो एक गुणवान पुत्र अच्छा । अकेला चंद्र अंधकार का नाश करता है, पर ताराओं के समूह से अंधकार का नाश नहीं होता ।
प्रीणाति य सुचरितैः पितरं स पुत्रो यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम् ।
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यत् एतत् त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ॥
पिता को अपने सद्वर्तन से खुश करनेवाला पुत्र, केवल पति का हित चाहनेवाली पत्नी, और जो सुख-दुःख में समान आचरण रखता हो ऐसा मित्र – ये तीन जगत में पुण्यवान को हि प्राप्त होते हैं ।
ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च व्यभिचारिणी ।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ॥
कर्जा करनेवाला पिता, व्यभिचारिणी माता, रुपवती स्त्री, और अनपढ पुत्र – शत्रुवत् हैं ।
दिग्वाससं गतव्रीडं जटिलं धूलिधूसरम् ।
पुण्याधिका हि पश्यन्ति गंगाधरमिवात्मजम् ॥
गंगा को धारण करनेवाले महादेव की भाँति दिगंबर, निर्लज्ज, जटावाले, और धूल से मैले बालक को तो कोई विशेष पुण्यशाली जीव हि देख सकता है ! (अर्थात् ऐसा बच्चा किसे अच्छा लगेगा ?
पात्रं न तापयति नैव मलं प्रसूते स्नेहं न संहरति नैव गुणान् क्षिणोति ।
द्रव्यावसानसमये चलतां न धत्ते सत्पुत्र एष कुलसद्मनि कोऽपि दीपः ॥
कुलवान के घर में प्रकट हुआ पुत्र तो एक विलक्षण दिये जैसा है । दिया तो पात्र को तपाता है, पर पुत्र कुल को नहीं तपाता; दिया मेश बनाता है पर पुत्र मैल नहीं निकालता; दीपक तेल पी जाता है पर पुत्र स्नेह का नाश नहीं करता; #दिया गुण (वाट) को कम करता है पर पुत्र गुण कम नहीं करता; दिया सामग्री कम होने पर बूझ जाता है पर पुत्र द्रव्य कम होने पर कुल का त्याग नहीं करता ।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान न धार्मिकः ।
काणेन चक्षुषा किं वा चक्षुःपीडैव केवलम् ॥
जो विद्वान और धार्मिक नहीं ऐसा पुत्र जनने से क्या लाभ ? एक आँख का क्या उपयोग ? वह तो केवल पीडा ही देती है !
विद्याविहीना बहवोऽपि पुत्राः कल्पायुषः सन्तु पितुः किमेतैः ।
क्षयिष्णुना वापि कलावता वा तस्य प्रमोदः शशिनेव सिन्धोः ॥
चंद्र क्षयरोग से पीडित है, फिर भी कलावान होने से समंदर को आनंद होता है । वैसे हि एखाद भी गुणवान पुत्र से पिता को आनंद होता है, परंतु, विद्याविहीन अनेक दीर्घायु पुत्र होने से पिता को क्या ?
कुम्भःपरिमितम्भः पिबत्यसौ कुम्भसंभवोऽम्भोधिम् ।
अतिरिच्यते सुजन्मा कश्चित् जनकं निजेन चरितेन ॥
मटका अपने माप जितना ही पानी पीता है, किंतु मटके में से जन्मे हुए अगत्स्य मुनि समंदर को पी जाते है । उसी तरह पुत्र अपने चरित्र से पिता के मुकाबले सर्वथा बेहतर होता है (होना चाहिए) ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्।।
जिसके जीवन में धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से एक भी नहीं है उसका जन्म ऐसे ही निष्फल है जैसे बकरी के गले का स्तन (जो न दूध देता है और ना हि गले की शोभा बढ़ाता है)।
Sanskrit Slokas for Family with Hindi Meaning
एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन भासते ।
कुलं पुरुषसिंहेन चन्द्रेणेव हि शर्वरी ॥
जैसे अकेले चंद्र से रात्रि शोभा देती है, वैसे विद्यावान और पुरुषों में सिंह जैसे एक सत्पुत्र से कुल शोभा देता है ।
पितृभिः ताडितः पुत्रः शिष्यस्तु गुरुशिक्षितः ।
धनाहतं सुवर्णं च जायते जनमण्डनम् ॥
पिता द्वारा मारा गया पुत्र, ग्रुरु द्वारा शिक्षा दिया गया शिष्य, और हथौडे से टीपा गया सोना लोगों में आभूषणरुप बनता है ।
यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम् ।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ॥
मनुष्य के जन्म के बाद, माता-पिता उसके लिए जो क्लेश सहन करते हैं, उसका बदला सौ साल बाद चुकाना भी शक्य नहीं ।
श्रावयेद् मृदुलां वाणीं सर्वदा प्रियमाचरेत् ।
पित्रोराज्ञानुकारी स्यात् स पुत्रः कुलपावनः ॥
जो मृदु वाणी सुनकर सदा प्रिय आचरण करता है, माता-पिता की आज्ञा मानता है, वह पुत्र कुल को पावन करता है ।
आचारो विनम्रो विद्या प्रतिष्ठा तीर्थदर्शनम् ।
निष्ठावृत्तिस्तपो ज्ञानं नवधा कुल लक्षणम् ॥
आचार, नम्रता, शास्त्रज्ञान, समाज प्रतिष्ठा, पवित्रता, श्रद्धा, व्यवसाय, व्रतपालन, और अनुभव ज्ञान – ये नौ कुल (परीक्षा) के लक्षण हैं ।
कुलं च शीलं च वयश्च रुपम् विद्यां च वित्तं च सनाथता च ।
तान् गुणान् सप्त परीक्ष्य देया कन्या बुधैः शेषमचिन्तनीयम् ॥
कुल, शील, आयु, रुप, विद्या, द्रव्य, और पालक – ये सात बातें देखकर, अन्य किसी बात का विचार न करके बुद्धिमान मनुष्य ने अपनी कन्या देनी चाहिए ।
राजपत्नी गुरोः पत्नी भ्रातृपत्नी तथैव च ।
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैते मातरः स्मृतः ॥
राजपत्नी, गुरुपत्नी, भाभी, सास, और जन्मदात्री माँ ये पाँच माताएँ हैं ।
कुले कलङ्कः कवले कदन्नता सुतः कुबुद्धिः र्भवने दरिद्रता ।
रुजः शरीरे कलहप्रिया प्रिया गृहागमे दुर्गतयः षडेते ॥
घर में आने पर कलंकित कुल, कुअन्न का भोजन, दुर्बुद्धि पुत्र, दारिद्र्य, शरीर में रोग, और कलहप्रिय पत्नी – ये छे दुर्गति का अहेसास कराते हैं ।
त्रयः कालकृताः पाशाः शक्यन्ते न निवर्तितुम् ।
विवाहो जन्म मरणं यथा यत्र च येन च ॥
विवाह, जन्म, और मरण – ये कालांतरगत है, अनिवार्य है । ये जैसे, जहाँ, और जिसके साथ होने होते हैं, वैसे हि होते हैं ।
त्यागाय समृतार्थानां सत्याय मिभाषिणाम् ।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥
सत्पात्र को दान देने के लिए धन इकट्ठा करनेवाले, यश के लिए विजय चाहनेवाले, सत्य के लिए मितभाषी और संतान के लिए विवाह करनेवाले, वे कहते हैं कि प्रजानार्थ गृहसंस्था थी ।
नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
चतुष्पदां शृगालस्तु स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी।।
पुरुषों में नाई, पक्षियों में कौआ, चौपायों में सियार और महिलाओं में मालिन ये सब चालाक (धूर्त) होते हैं।
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारि शुचिः शुचिः।।
समस्त पवित्रताओं में धन की पवित्रता सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। जो धन के मामले में सर्वथा पवित्र है वास्तव में वही व्यक्ति पवित्र है। जो केवल मिट्टी-जलादि से (अर्थात् शरीर स्थानादि की सफाई से) पवित्र है वह वास्तव में पवित्र नहीं है।
सर्वौषधीनाममृता प्रधाना सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्।
सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम्।।
सब ओषधियों में गिलोय, समस्त सुखों में भोजनसुख, सकल इन्द्रियों में आंख और शरीर के समस्त अंगों में सिर सर्वश्रेष्ठ होता है।