सूर्योपासना आदिकाल से हिन्दू परंपरा का एक अभिन्न अंग है | छठ पर्व, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक विशिष्ट हिन्दू पर्व है। यह चार दिवसीय महापर्व है जो चौथ से सप्तमी तक मनाया जाता है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता रहा है। परन्तु अब यह पर्व देश की सीमाओं को लांघता हुआ अमेरिका और युरोप तक जा पहुंचा है|
छठ पूजा 2016 में 4 नवम्बर दिन शुक्रवार से 7 नवम्बर दिन सोमवार तक मनाई जाएगी |
भारत आदिकाल से ही सूर्य की उपासना करता आया रहा है| ऋग्वेद की तमाम ऋचाएं सूर्य की प्रार्थना में हैं | विष्णु पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण आदि में सूर्य की उपासना का विस्तार से वर्णन है|
सूर्योपासना का यह लोकपर्व पिछले कुछ वर्षों में तेजी से लोकप्रिय हुआ और अब इसके प्रभाव से दिल्ली और बम्बई जैसे शहर भी अछूते नहीं हैं| लोगों में इस पर्व के आदि कारण की जिज्ञासा भी रहती है और मेरा यह लेख इसी आदि कारण के शंका समाधान के लिए है|
त्रेतायुग में भगवान राम ने इसी तिथि पर किया था राजसूर्य यज्ञ :
विजयादशमी के दिन लंकापति रावण के वध के बाद दिवाली के दिन भगवान राम अयोध्या पहुंचे। रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए भगवान राम ने ऋषि-मुनियों की सलाह से राजसूर्य यज्ञ किया। इस यज्ञ के लिए अयोध्या में मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया गया। मुग्दल ऋषि ने मां सीते को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। इसके बाद मां सीता मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।
द्वापर युग में अर्घ्य दान से कर्ण को मिला भगवान सूर्य से वरदान :
मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। जिसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है। मान्याताओं के अनुसार वे प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े रहकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वे महान योद्धा बने थे।
राजपाट वापसी के लिए द्रौपदी ने की थी छठ पूजा :
महाभारत काल में छठ पूजा का एक और वर्णन मिलता है। जब पांडव जुए में अपना सारा राजपाट गवां बैठे तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाट वापस मिल गया था।
कलियुग में सूर्य की उपासना से हुई राजा प्रियवंद दंपति को संतान प्राप्ति:
बहुत समय पहले की बात है राजा प्रियवंद और रानी मालिनी की कोई संतान नहीं थी। महर्षि कश्यप के निर्देश पर इस दंपति ने यज्ञ किया जिसके चलते उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। दुर्भाग्य से यह उनका बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ. इस घटना से विचलित राजा-रानी प्राण छोड़ने के लिए आतुर होने लगे। उसी समय भगवान की भगवान ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं। उन्होंने राजा से कहा कि क्योंकि वो सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने बताया कि उनकी पूजा करने से संतान सुख की प्राप्ति होगी। राजा प्रियंवद और रानी मालती ने देवी षष्ठी की व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं ये पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी। और तभी से छठ पूजा होती है।
लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई है।