दुर्जन धूर्त दुष्टों पर संस्कृत श्लोक
Sanskrit Slokas on Durjan Dusht with Hindi Meaning
यहाँ दुर्जनों धूर्तों दुष्टों पर श्लोक का एक संकलन तैयार किया गया है जो आपको दुर्जनों दुष्टों के लक्षण बताने वाला है एवं इनसे सावधानी और नीति से कैसे निबटें यह भी समझने में मदद करेगा। दुर्जन धूर्त दुष्टों पर संस्कृत श्लोक संस्कृत में खूब हैं इसलिए इसे यहाँ दो भागों में (दूसरा भाग यहाँ पढ़ें) दिया जा रहा है।
नीति से पगी संस्कृत की बातें यहाँ सरल हिंदी अनुवाद के साथ दिया गया है तथा आशा है आपको पसंद आएगा;
स्नेहेन भूतिदानेन कृतः स्वच्छोऽपि दुर्जनः ।
दर्पण्श्र्चान्तिके तिष्ठन् करोत्येकमपि द्विधा ॥
स्नेह से और उन्नति करने के बावजुद दुर्जन, और तेल व भस्म से स्वच्छ करने के बावजुद दर्पण, पास रहनेवाले को एक में से दो कर देते हैं (छिन्न भिन्न कर देता हैं) ।
मुखं पद्मदलाकारं वाणी चन्दनशीतला ।
ह्रदयं क्रोधसंयुक़्तं त्रिविधं धूर्तलक्षणम् ॥
मुख पद्मदल के आकार का, वाणी चंदन जैसी शीतल, और ह्रदय क्रोध से भरा हुआ – ये तीन धूर्त के लक्षण हैं ।
दुर्जनः सुजनीकर्तु यत्नेनापि न शक्यते ।
संस्कारेणापि लशुनं कः सुगन्धीकरिष्यति ॥
दुर्जन को सज्जन बनाना शक्य नहीं है । संस्कार देने से लसून को कौन सुगंधित कर सकता है ?
बोधितोऽपि बहु सूक्तिविस्तरैः किं खलो जगति सज्जनो भवेत् ।
स्नापितोऽपि बहुशो नदीजलैः गर्दभः किमु हयो भवेत् कचित् ॥
अच्छे वचनों के उपदेश देने से क्या इस दुनिया में दुष्ट मानव सज्जन हो जायेंगे ? नदी के पानी से बार बार स्नान कराने के बावजुद क्या गधा कभी घोडा बन पायेगा ?
दुर्जन व्यक्ति के लक्षण
बहति विषधरान् पटीरजन्मा शिरसि मषीपटलं दधाति दीपः ।
विधुरपि भकजतेतरां कलंकम् पिशुनजनं खलु बिभ्रति क्षितीन्द्राः ॥
चंदन झहरीले सर्पको पास रखता है, दीया अपने मस्तक पर काजल धारण करता है, चंद्र को भी कलंक है। वैसे ही राजा दुष्ट को पास रखता है।
अमरैरमृतं न पीतमब्धेः न च हालाहलमुल्बणं हरेण ।
विधिना निहितं खलस्य वाचि द्वयमेतत् बहिरेकमन्तरान्यत् ॥
सागर में से देवों ने अमृत नहीं पिया था, शंकर जी ने भयंकर ज़हर नहीं पीया था; वह अमृत और ज़हर तो ब्रह्मा ने दुष्ट की वाणी में रखा – एक बाहर, एक अंदर।
अहमेव गुरुः सुदारुणानामिति हालाहल मा स्म तात दृप्यः ।
ननु सन्ति भवादृशानि भूयो भुवनेस्मिन् वचनानि दुर्जनानाम् ॥
हे हलाहल (विष) ! मैं भय़ंकर में श्रेष्ठ हूँ एसा घमंड न करना । इस जगत में तुझ से भी भयंकर दुर्जन के वचन हैं।
विषधरतोऽप्यति विषमः ख़लः इति न मृषा वदन्ति विद्वांसः।
यदयं नकुलद्वेषी स कुलद्वेषी पुनः पिशुनः॥
दुष्ट मानव सर्प से भी अधिक भयंकर है, ऐसा विद्वान सही कहते हैं । सर्प चाहे नकुल (नेवला) द्वेषी है, फिर भी कुल का द्वेष नहीं करते, लेकिन दुष्ट तो कुल का भी द्वेष करते हैं।
त्यकत्वापि निजप्राणान् परहितविध्नं खलः करोत्येव।
कवले पतिता सद्यो वमयति खलु मक्षिकाऽन्नभोक्तारम्॥
अपने प्राण त्याग कर भी दुष्ट मानव दूसरे को विध्न रुप ही बनता है । अनाज के निवाले में पडी मक्खी अनाज खाने वाले को वमन (उल्टी) ही कराती है ।
रविरपि न दहति तादृग् यावत् संदहति वालिका निकरः ।
अन्यस्माल्लब्धपदः नीचः प्रायेण दुःसहो भवति॥
रेत के कण (पैरों को) जितना जलाते हैं उतना सूर्य भी नही जलाता! दूसरे के कृपा से उच्च पद पाने वाला नीच सदैव दुःसह्य ही होता है ।
वर्जनीयो मतिअमता दुर्जनः सख्यवैरयोः ।
श्र्वा भवत्यपकाराय लिहन्नपि दशन्नपि ॥
मतिमान मानव को दुष्ट के साथ मैत्री या बैर नहीं करना चाहिए। कुत्ता चाटता है तो भी और काटता है तो भी नुकसान ही करता है।
यस्मिन् वंशे समुत्पन्नः तमेव निजचेष्टितैः।
दूषयत्यचिरेणैव धुणकीट इवाधमः ॥
घुन कीट की तरह अधम मानव जिस कुल में पैदा हुआ हो उसे अपने ही कृत्य से थोडे समय में दूषित करता है ।
बहुनिष्कपटद्रोही बहुधान्योपधातकः ।
रन्धान्वेषी च सर्वत्र दूषको मूषको यथा ॥
चूहे की तरह ही दुष्ट भी निष्कपट लोगों से द्रोह करने वाला (कीमती वस्त्र को खा जाने वाला), ज़्यादा करके दूसरे को घात करने वाला (धान्य का नाश करने वाला) और छिद्र ढूँढने वाला होता है ।
अलकाश्र्च खला मूर्धभिः सुजनैः धृताः ।
उपर्युपरि संस्कारेऽप्याविष्कुर्वन्ति वक्रताम् ॥
सज्जन द्वारा मस्तक पर धारण किये गये बालक और दुष्ट लोग बारंबार संस्कार देने के बावजूद अपनी वक्रता को प्रकट करते हैं ।
क्वचित् सर्पोऽपि मित्रत्वमियात् नैव खलः क्वचित् ।
न शोषशायिनोऽप्यस्य वशे दुर्योधनः हरेः ॥
कभी सर्प भी मित्र बन सकता है, किन्तु दुष्ट को कभी मित्र नहीं बनाया जा सकता। शेषनाग पर शयन करने वाले हरि का भी दुर्योधन मित्र न बन सका !
विशिखवव्यालयोरंत्यवर्णाभ्यां यो विनिर्मितः ।
परस्य हरति प्राणान् नैतत्त्चित्रं कुलोचितम् ॥
बाण और जंगली पशु के अंत्यवर्ण से जो उत्पन्न हुआ है, वह दूसरे का प्राण हर लेता है उसमें आश्चर्य नहीं । वह तो उन के कुल को उचित ही है ।
धूर्त पर श्लोक
गुणायन्ते दोषाः सुजनवदने दुर्जन्मुखे
गुणाः दोषायन्ते तदिदं नो विस्मयपदम् ।
महमेघः क्षारं पिबति कुरुते वारि मधुरम्
फणी क्षीरं पीत्वा वमति गरलं दुःसहतरम् ॥
सज्जन के मुख में दोष भी गुण बनते हैं, लेकिन दुर्जन के मुख में गुण भी दोष बन जाता है उसमें आश्चर्य नहीं है; बादल नमकीन पानी पीता है और उसको मधुर बनाता है, जबकि सर्प तो दूध पीकर भयंकर ज़हर निकालता है !
अपूर्वः कोऽपि कोपाग्निः खलस्य सज्जनस्य च ।
एकस्य शाम्यति स्नेहात् वर्धतेड्न्यस्य वारितः ॥
दुष्ट का और सज्जन का कोपाग्नि अद्भुद है, एक का क्रोध तेल (स्नेह) से शांत हो जाता है, जब कि दूसरे का पानी में डूबोने के बावजूद बढता है ।
खलः करोति दुर्वृत्तं नूनं फलति साधुषु ।
दशाननो हरेत् सीतां बन्धनं स्याद् महोदधेः ॥
दुष्ट मानव खराब कार्य करता है और उसका दुष्फल अच्छे मानव को भुगतना पड़ता है । रावण सीता का हरण करता है और सागर को बंधना पड़ता है ।
मृगमीनसज्जनानां तृणजलसंतोषवृत्तीनाम् ।
लुब्धकधीवरपिशुनाः निष्कारणमेव वैरिणो जगति ॥
घास, पानी और संतोष से जीने वाले हिरण, मछलियाँ सज्जन के अनुक्रम से पारधी (बहेलिया), मछुआरे और दुष्ट लोग बिना कारण बैरी होते हैं ।
अहो दुर्जनसंसर्गात् मानहानिः पदे पदे ।
पावको लोहसंगेन मुद्ररैरभिहन्यते ॥
दुर्जन के संसर्ग से कदम कदम पर हानि होती है । लोहे के संसर्ग से अग्नि को भी हथौडे का आघात सहना पड़ता है ।
अतिरमणीये कव्येऽपि पिशुनो दूषणमन्वेषयति ।
अतिरमणीये वपुषि व्रणमिव मक्षिकानिकरः ॥
जैसे सुंदर शरीर में भी मक्खीयों का समूह व्रण (घाव) को ढूँढता है, वैसे रमणीय काव्य में भी दुष्ट दोष ढूँढता है ।
कृतवैरे न विश्र्वासः कार्यस्त्विह सुहध्यति ।
छन्नं संतिष्ठते वैरं गूठोऽग्रिरिव दारुषु ॥
जिसके साथ बैर हुआ हो ऐसे सुह्र्द पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए । जैसे लकडी में अग्नि छुपा है वैसे उनमें बैर छुपा होता है ।
दुष्टों पर श्लोक
अहो खलुभुंजगस्य विपरीतो वधक्रमः ।
कर्णे लगति एकस्य प्राणैरन्यो विमुच्यते ॥
अरे ! दुष्ट, मानव रुपी सर्प की वध करने की रीत ही अलग है; यह तो एक के कान को स्पर्श करें ओर जान दूसरे की जाए (याने कि एक के कान में कुछ कहे ओर नुकसान दुसरे को हो) !
न दुर्जनः सज्जनतामुपैति बहु प्रकारैरपि सेव्यमानः ।
अत्यंतसिक्तः पयसा धृतेन न निम्बवृक्षः मधुतामुपैति ॥
विविध प्रकार से सेवा करने के बावजूद दुर्जन सज्जन नहीं बनता । दूध और घी में अत्यंत डूबोया हुआ निंबवृक्ष मधुर नहीं बनता ।
तुष्यन्ति भोजनैर्विप्राः मयूरा धनगर्जितैः ।
साधवः परकल्याणैः खलाः परविपत्तिभिः ॥
ब्राह्मण भोजन से, मोर मेघ गर्जना से, सज्जन परकल्याण से ओर दुष्ट पर विपत्ति से खुश होता है ।
मृगमदकर्पूरागरुचन्दनगन्धाधिवासितो लशुनः ।
न त्यजति गंधमशुभं प्रकृतिमिव सहोत्थितां नीचः ॥
कस्तूरी, कपूर, अगरु और सुवास से सुवासित किया हुआ लहसुन अपनी दुर्गंध नहीं छोडता । वैसे ही दुष्ट अपनी जन्मजात नीच वृत्तिओं का त्याग नहीं करता ।
यथा गजपतिः श्रान्तः छायार्थी वृक्षमाश्रितः ।
विश्रम्य तं द्रुमं हन्ति तथा नीचः स्वमाश्रयम् ॥
जैसे थका हुआ हाथी छांव लेने वृक्ष का आश्रय लेता है, और विश्राम के बाद वृक्ष का नाश करता है वैसे नीच मानव खुद को आश्रय देने वाले का नाश करता है ।
पाषाणो भिध्यते टंके वज्रः वज्रेण भिध्यते ।
सर्पोऽपि भिध्यते मन्त्रै र्दुष्टात्मा नैव भिध्यते ॥
पाषाण टंक से, वज्र वज्रसे, साप मंत्रसे भेदा जाता है, लेकिन दुष्ट मानव किसी से भी नहीं भेदा जाता ।
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