राष्ट्र के श्रृंगार
राष्ट्र के शृंगार! मेरे देश के साकार सपनों!
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।
जिन शहीदों के लहू से लहलहाया चमन अपना
उन वतन के लाड़लों की
याद मुर्झाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।
तुम न समझो, देश की स्वाधीनता यों ही मिली है,
हर कली इस बाग़ की, कुछ खून पीकर ही खिली है।
मस्त सौरभ, रूप या जो रंग फूलों को मिला है,
यह शहीदों के उबलते खून का ही सिलसिला है।
बिछ गए वे नींव में, दीवार के नीचे गड़े हैं,
महल अपने, शहीदों की छातियों पर ही खड़े हैं।
नींव के पत्थर तुम्हें सौगंध अपनी दे रहे हैं
जो धरोहर दी तुम्हें,
वह हाथ से जाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।।
देश के भूगोल पर जब भेड़िये ललचा रहें हो
देश के इतिहास को जब देशद्रोही खा रहे हों
देश का कल्याण गहरी सिसकियाँ जब भर रहा हो
आग-यौवन के धनी! तुम खिड़कियाँ शीशे न तोड़ो,
भेड़ियों के दाँत तोड़ो, गरदनें उनकी मरोड़ो।
जो विरासत में मिला वह, खून तुमसे कह रहा है-
सिंह की खेती
किसी भी स्यार को खाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।।
तुम युवक हो, काल को भी काल से दिखते रहे हो,
देश का सौभाग्य अपने खून से लिखते रहे हो।
ज्वाल की, भूचाल की साकार परिभाषा तुम्हीं हो,
देश की समृद्धि की सबसे बड़ी आशा तुम्हीं हो।
ठान लोगे तुम अगर, युग को नई तस्वीर दोगे,
गर्जना से शत्रुओं के तुम कलेजे चीर दोगे।
दाँव पर गौरव लगे तो शीश दे देना विहँस कर,
देश के सम्मान पर
काली घटा छाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।
वह जवानी, जो कि जीना और मरना जानती है,
गर्भ में ज्वालामुखी के जो उतरना जानती है।
बाहुओं के ज़ोर से पर्वत जवानी ठेलती है,
मौत के हैं खेल जितने भी, जवानी खेलती है।
नाश को निर्माण के पथ पर जवानी मोड़ती है,
वह समय की हर शिला पर चिह्न अपने छोड़ती है।
देश का उत्थान तुमसे माँगता है नौजवानों!
दहकते बलिदान के अंगार
कजलाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।।
– श्रीकृष्ण सरल