राजधर्म पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlokas on ROYAL DUTY
काचे मणिः मणौ काचो येषां बिध्दिः प्रवर्तते ।
न तेषां संनिधौ भृत्यो नाममात्रोSपि तिष्ठति ॥
कांच को मणि और मणि को कांच समझने वाले राजा के पास नौकर तक भी नहीं टिकते ।
धूर्तः स्त्री वा शिशु र्यस्य मन्त्रिणः स्युर्महीपतेः ।
अनीति पवनक्षिप्तः कार्याब्धौ स निमज्जति ॥
जिस राजा के सचिव की स्त्री या पुत्र धूर्त हो, उसकी कार्यरुप नौका अनीति के पवन से डूब जाती है ऐसा समझिये ।
अपृष्टस्तु नरः किंचिद्यो ब्रूते राजसंसदि ।
न केवलमसंमानं लभते च विडम्बनम् ॥
राजसभा में बिना पूछे ही अपना अभिप्राय व्यक्त करने वाले लोग केवल अपमानित ही नहीं अपितु उपहास के पात्र भी होते हैं ।
सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणुते हि विमृश्यकारिणम् गुण लुब्धाः स्वयमेव हि संपदः ॥
बिना सोचे कोई काम नहीं करना चाहिए, क्यों कि अविवेक आपत्ति का मूल है । गुण पर लब्ध होने वाला वैभव खुद भी सोचकर मानव को पसंद करता है ।
आत्मनश्र्च परेषां च यः समीक्ष्य बलाबलम् ।
अन्तरं नैव जानाति स तिरस्क्रियतेडरिभिः ॥
खुदके और दूसरे के बल का विचार करके जो योग्य अंतर नहीं रखता वह (राजा) शत्रु के तिरस्कार का पात्र बनता है ।
मन्त्रबीजमिदं गुप्तं रक्षणीयं यथा तथा ।
मनागपि न भिद्येते तद्बिन्नं न प्ररोहति ॥
मंत्र का मूल गुप्त रखने की चेष्टा करनी चाहिए । क्योंकि मूल बाहर निकले तो बीज उगेगा ही नहीं (याने कि मंत्रणा विफल हो जायेगी) !
उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् ।
नीचमल्पप्रदानेनेष्टं धर्मेण योजयेत् ॥
अपने से श्रेष्ठ हो उसको प्रणाम करके, शूर को भेद नीति से, निम्न कोटि को कुछ देकर, और जिसकी जरुरत हो उसे न्याय पूर्वक अपना करना चाहिए ।
अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिश्र्च यः ।
द्वावेव सुखमेधेते दीर्घसूत्री विनश्यति ॥
न आये हुए संकट की आगे से तैयारी रखने वाला और प्रसंगावधानी ये दो (प्रकार के राजा) ही सुखी होते हैं । विलंब से काम करने वाले का नाश होता है ।
मूर्खे नियोज्यमाने तु त्रयो दोषाः महीपतेः ।
अयशश्र्चार्थनाशश्र्च नरके गमनं तथा ॥
मूर्ख मानव की नियुक्ति करने वाले राजा के तीन दोष अपयश, द्र्व्यनाश और नरकप्राप्ति हैं ।
व्रजन्ति ते मूठधियः पराभवम् ।
भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः ॥
जो राजा कपटी इन्सान के साथ कपटी वर्तन नहीं करता वह मूर्ख राजा का प्रभाव होता है ।
कुलीनः कुलसम्पन्नो वाग्मी दक्षः प्रियंवचः ।
यथोक्तवादी स्मृतिवान् दूतः स्यात् सप्तभि र्गुणैः ॥
कुलीनता, कुलसंपन्नता, वाक्चातुर्य, दक्षता, प्रियवादिता, उचित संदेशवहन और स्मृतिशक्ति – ये दूत के सात गुण हैं ।
दुष्टस्य दण्डः स्वजनस्य पूजा न्यायेन कोशस्य हि वर्धनं च ।
अपक्षपातः निजराष्ट्ररक्षा पञ्चैव धर्माः कथिताः नृपाणाम् ॥
दुष्ट को दंड देना, स्वजनों की पूजा करना, न्याय से कोश बढाना, पक्षपात न करना, और राष्ट्र की रक्षा करना – ये राजा के पाँच कर्तव्य है ।
नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं पश्य गत्वा वनस्थलीम् ।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पंगुवत् ॥
दुनिया में अत्यंत सरल न होना । जंगल में जाकर देखो, सरल वृक्ष (घर बनानेके लिए) काटा जाता है, लेकिन छोटे वृक्ष अपंग मानव की तरह अपनी जगह पर खडे रहते हैं (काटे नहीं जाते) ।
प्राज्ञे नियोज्यमाने तु सन्ति राज्ञः त्रयोगुणः ।
यशः स्वर्गनिवासश्र्च विपुलश्र्च धनागमः ॥
बुद्धिमान लोगों की नियुक्ति करने वाले राजा को तीन चीज़ों की प्राप्ति होती है – यश, स्वर्ग और बहुत धन ।
उपकारगृहीतेन शत्रुणा शत्रुमुध्दरेत् ।
पादलग्नं करस्थेन कण्टकेनैव कण्टकम् ॥
उपकार से वश किये गये शत्रु द्वारा दूसरे शत्रुका नाश करना चाहिए । जैसे पैर में लगे काँटे को हाथ में लिए दूसरे काँटे से निकाला जाता है ।
कौर्मं संकोचमास्थाय प्रहारानपि मर्षयेत् ।
प्राप्ते काले च मतिमानुत्तिष्ठेत् कृष्णसर्पवत् ॥
बुध्दिमान मनुष्य को कछुए की तरह अपने गात्र संकुचित करके प्रहार सहन करना चाहिए, किन्तु समय आने पर साँप की तरह डर भी दिखाना चाहिए ।
Why I’m not able to copy this??