एकता पर संस्कृत श्लोक | Shloka for Unity in Sanskrit with Meaning
असहायः पुमानेकः कार्यान्तं नाधिगच्छति ।
तुषेणापि विनिर्मुक्तः तण्डुलो न प्ररोहति ॥
इन्सान अकेला हो तब असहाय होता है, उस के कार्य का अंत नहीं होता । ‘तुष’ से त्यजे गये चावल भी फिर नहीं उगते हैं।
बहवो न विरोध्दव्याः दुर्जयास्तेऽपि दुर्बलाः ।
स्फुरन्तमपि नागेन्द्रं भक्षयन्ति पिपीलिकाः ॥
अनेक लोगों का विरोध नहि करना चाहिए । वे दुर्बल हो तो भी दुर्जय बनते हैं । फडकते हुए सांप को भी चींटीयाँ खा जाती है ।
कुठार मालिकां दृष्ट्वा कम्पिताः सकलाः द्रुमाः ।
वृद्धस्तरुरुवाचेदं स्वजाति र्नैव दृश्यते ॥
कुल्हाडी की हारमाला देखकर सब वृक्ष कंपित हो उठे । (तब) एक वृद्ध वृक्ष ने कहा, (डरना नहि) “इनमें स्वजाति का कोई दिखता नहि ।”
संभोजनं संकथनं संप्रीतिश्च परस्परम् ।
ज्ञातिभिः सह कार्याणि न विरोधः कदाचन ॥
ज्ञातिजनों के साथ परस्पर संभोजन, वार्तालाप, प्रीति रखने चाहिए । विरोध (कलह) कभी नहि करना चाहिए ।
महानप्येकजो वृक्षो बलवान् सुप्रतिष्ठितः ।
प्रसह्य एव वातेन शक्यो धर्षयितुं क्षणात् ॥
वृक्ष बलवान, सुस्थिर, और बडा हो फिर भी, यदि अकेला हो तो पवन से एक हि क्षण में उखाडा जा सकता है ।
एकस्मिन् अक्षिणि काके यदा विज्ञायते पिपत् ।
ते काकाः मिलिताः सन्तः यतन्ते तन्निवृत्तये ॥
कौए को एक हि आँख होती है । फिर भी जब विपत्ति आती है, तब सब कौए साथ मिलकर उसे दूर करने का प्रयत्न करते हैं ।
कुलीनैः सह सम्पर्क पण्डितैः सह मित्रताम् ।
ज्ञातिभिश्च समं मेलं कुर्वाणो न विनश्यति ॥
कुलीनों के साथ संपर्क, पंडितो के साथ मैत्री, (और) ज्ञातिजनों के साथ मेल रखनेवाला इन्सान कभी नष्ट नहि होता ।
भूमि जलाग्नि वायूनामणवः मिलिता यदि ।
साधयन्ति स्वकं कार्यं न भिन्नाः कार्यसाधकाः ॥
भूमि, जल, अग्नि, वायु के अणु जो साथ मिले तो अपना कार्य साध सकते हैं, पर भिन्न हो तो, कार्यसाधक नहि बनते ।
अन्योन्यैक्यप्रभावेण पाण्डवानां जयः किल ।
विनष्टाः कौरवाः सर्वे तदभावान्न संशयः ॥
अन्योन्य ऐक्यप्रभाव से पांडवों का जय हुआ, और उसके अभाव से कौरवों का नाश, इसमें संदेह नहि ।
बहूनां चैव सत्त्वानां समवायो रिपुञ्जयः ।
वर्षधाराधरो मेघस्तृणैरपि निवार्यते ॥
अनेक वस्तुओं का समूह शत्रुओं पर विजय दिलानेवाला बनता है । अनराधार बरसात बरसानेवाले बादल का निवारण, घास के तिन्कों से किया जा सकता है ।
अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका ।
तृणै र्गुणत्वमापन्नै र्बध्यन्ते मत्तदन्तिनः ॥
अल्प वस्तुओं का पुंज भी कार्य निपटाने वाला बन जाता है । तिन्के जब रस्सी बन जाय, तो उससे मत्त हाथी भी बाँधे जाते हैं ।
संहतिः श्रेयसी पुंसां स्वकुलैरल्पकैरपि ।
तुषेणापि परित्यक्ता न प्ररोहन्ति तण्डुलाः ॥
स्वयं का कुल छोटा हो फिर भी इन्सान के लिए संप हितकारक है । “तुष” से त्यजे हुए चावल उगते नहि ।
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