नीति शतक के श्लोक हिंदी अंग्रेजी अर्थ सहित भर्तृहरि विरचितम् | Bhartrihari Neeti Shatak with Hindi & English Meaning

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॥ नीति शतकम् भर्तृहरिविरचितम् ॥

परिचय:

भर्तृहरि विरचित नीति शतकम् में मनुस्मृति और महाभारत की गम्भीर नैतिकता, कालीदास की-सी प्रतिभा के साथ प्रस्फुटित हुई है। विद्या, वीरता, दया, मैेत्री, उदारता, साहस, कृतज्ञता, परोपकार, परायणता आदि मानव जीवन को ऊंचा उठानेेेे वाली उदात्त भावनाओं का उन्होेेेंनेेे बड़ी सरल एवं सरस पद्यावली में वर्णन किया है। उन्होंने इसमें जिन नीति-सिद्धांतों का वर्णन किया है वे मानव मात्र के लिए अंधरेेे में दीपक के समान हैं।

पाश्चात्य लेखक आर्थर डब्ल्यू राइडर के अनुसार छोटे-छोटे पद्य अथवा श्लोक लिखने में भारतीय सबसे आगे हैं। उनका इस रीति पर अधिकार, कल्पना की उड़ान, अनुभूति की गहराई और कोमलता- सभी अत्युत्कृष्ट हैं। जिन व्यक्तियो ने ऐसे पद्य लिखे हैं उनमें भर्तृहरि अग्रणी हैं।

 

नीति शतक के श्लोक हिंदी अंग्रेजी अर्थ सहित भर्तृहरि विरचितम्

मंगलाचरणम्

दिक्‍कालाद्यनवच्छिन्‍नानन्‍तचिन्‍मात्रमूर्तये ।
स्‍वानुभूत्‍येकमानाय नम: शान्‍ताय तेजसे ।। 1 ।।

अर्थ:

दशों दिशाओं और तीनो कालों से परिपूर्ण, अनंत और चैतन्य-स्वरुप अपने ही अनुभव से प्रत्यक्ष होने योग्य, शान्त और तेजरूप परब्रह्म को नमस्कार है ।

My salutation to the peaceful light, whose form is only pure intelligence unlimited and unconditioned by space, time, and the principal means of knowing which is self-perception.

यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता,
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या,
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ।। 2 ।।

अर्थ:
मैं जिसके प्रेम में रात दिन डूबा रहता हूँ – किसी क्षण भी जिसे नहीं भूलता, वह मुझे नहीं चाहती, किन्तु किसी और ही पुरुष को चाहती है । वह पुरुष किसी और ही स्त्री को चाहता है । इसी तरह वह स्त्री मुझे प्यार करती है । इसलिए उस स्त्री को, मेरी प्यारी के यार को, प्यारी को, मुझको और कामदेव को, जिसकी प्रेरणा से ऐसे ऐसे काम होते हैं, अनेक धिक्कार है ।

The woman whom I adore has no affection for me; she, however, adores another who is attached to some one else; while a certain woman is in love with me even when I do not reciprocate the feelings. Fie on her, on him, on the God of Love, on that woman, and on myself.

मूर्खपद्धतिः

अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्य्ते विशेषज्ञ: ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ।। 3 ।।

अर्थ:
हिताहितज्ञानशून्य नासमझ को समझाना बहुत आसान है, उचित और अनुचित को जानने वाले ज्ञानवान को राजी करना और भी आसान है; किन्तु थोड़े से ज्ञान से अपने को पण्डित समझने वाले को स्वयं विधाता भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता ।

An ignorant man can be easily convinced, a wise man can still more easily be convinced: but even Lord Brahma cannot please him who is puffed up with a little knowledge because half knowledge makes a man very proud and blind to logic.

प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरदंष्ट्रान्तरात्
समुद्रमपि सन्तरेत् प्रचलदुर्मिमालाकुलाम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ।। 4 ।।

अर्थ:
यदि मनुष्य चाहे तो मकर की दाढ़ों की नोक में से मणि निकल लेने का उद्योग भले ही करे; यदि चाहे तो चञ्चल लहरों से उथल-पुथल समुद्र को अपनी भुजाओं से तैर कर पार कर जाने की चेष्टा भले ही करे, क्रोध से भरे हुए सर्प को पुष्पहार की तरह सर पर धारण करने का साहस करे तो भले ही करे, परन्तु हठ पर चढ़े हुए मूर्ख मनुष्य के चित्त की असत मार्ग से सात मार्ग पर लाने की हिम्मत कभी न करे ।

With courage, we could extract the pearl stuck in between crooked teeth of a crocodile. We could sail across an ocean that is tormented by huge waves. We may even be able to wear an angry snake on our head as if it were a flower. However it is impossible to satisfy an obstinate fool.

 

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नत: पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दित:।
कदाचिदपि पर्यटन् शशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ।। 5 ।।

अर्थ:
कदाचित कोई किसी तरकीब से बालू में से भी तेल निकल ले, कदाचित कोई प्यासा मृगतृष्णा के जल से भी अपनी प्यास शान्त कर ले; कदाचित कोई पृथ्वी पर घुमते घुमते घरगोश का सींग भी खोज ले; परन्तु हठ पर चढ़े हुए मूर्ख मनुष्य के चित्त को कोई भी अपने काबू में नहीं कर सकता ।

If enough effort is put in, we can extract oil by squeezing sand. You may be able to drink water at a mirage. It is also possible to even spot a rabbit with horns while roaming around the world. However it is impossible to get a prejudiced fool to see logic.

व्यालं बाल-मृणाल-तन्तुभिरसौरोद्धं समुज्जृम्भते,
भेत्तुं वज्रमपि शिरीषकुसुम-प्रान्तेन सन्नह्यते ।
माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते,
ने तुं वांछति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ।। 6 ।।

अर्थ:
जो मनुष्य अपने अमृतमय उपदेशों से दुष्ट को सुराह पर लाने की इच्छा करता है, वह उसके सामान अनुचित काम करता है, जो कोमल कमल की डण्डी के सूत से ही मतवाले हाथी को बांधना चाहता है, सिरस के नाजुक फूल की पंखुड़ी से हीरे को छेदना चाहता है अथवा एक बूँद मधु से खारे महासागर को मीठा करना चाहता है ।

He who wishes to lead the wicked fool into the path of the virtuous by sweet persuasive language is like one who endeavors to curb a maddened elephant by means of tender lotus filaments, like one who tries to cut the diamond with the edge of the Shirisha flower, or like one who hopes to sweeten the salt waters of the ocean by means of a drop of honey.

स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः ।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ।। 7 ।।

अर्थ:
मूर्खों को अपनी मूर्खता छिपाने के लिए ब्रह्मा ने “मौन धारण करना” अच्छा उपाय बता दिया है और वह उनके अधीन भी कर दिया है । मौन मूर्खता का ढक्कन है । इतना ही नहीं वह विद्वानों की मण्डली में उनका आभूषण भी है ।

The creator has produced for ignorance, a cover which is within one’s own control and which is certain in its efficacy. In the assembly of the well-versed, silence specially becomes the ornament of the ignorant.

 

यदा किञ्चिज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किञ्चित् किञ्चित् बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ।। 8 ।।

अर्थ:

जब मैं कुछ थोड़ा सा जानता था, तब मदोन्मत्त हाथी की तरह घमण्ड से अन्धा होकर, अपने को ही सर्वज्ञ समझता था । लेकिन ज्योंही मैंने विद्वानों की सङ्गति से कुछ जाना और सीखा, त्योंही मालूम हो गया की मैं तो निरा मूर्ख हूँ । उस समय मेरा मद ज्वर की तरह उतर गया ।

When I Knew but a little, I was blinded by pride as an elephant is blinded by rut from excitement, and my mind was puffed up with the idea that I knew everything. When, however, I gradually gained knowledge through the contact of the wise I found I was a fool; and the pride, which had possessed me like fever, left me.

कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं
निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ।। 9 ।।
अर्थ:
जिस तरह कीड़ो से भरे हुए, लार-युक्त, दुर्गन्धित, रस-मास हीन मनुष्य के घ्रणित हाड को आनंद से खाता हुआ कुत्ता, पास खड़े इन्द्र की भी शंका नहीं करता, उसी तरह क्षुद्र जीव, जिसका ग्रहण कर लेता है, उसकी तुच्छता पर ध्यान नहीं देता ।

A dog happily chews the human bone devoid of all juice and taste even if it is covered with maggots, wet with saliva, be disgusting, nauseating even in the presence lord of heavens Indra. Similarly a mean man is never ashamed of accepting another’s worthless favor or munificence.

शिरः शार्वं स्वर्गात् पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरम्।
महीध्रादुत्तुङगादवनिमवनेश्चापि जलधिम्।
अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा।
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।। 10 ।।

अर्थ:
गङ्गा पहले स्वर्ग से शिव के मस्तक पर गिरी, उनके मस्तक से हिमालय पर्वत पर गिरी, वहां से पृथ्वी पर गिरी और पृथ्वी से बहती बहती समुद्र में जा गिरी । इस तरह ऊपर से नीचे गिरना आरम्भ होने पर, गङ्गा नीचे ही नीचे गिरी और स्वल्प हो गयी । गङ्गा की सी ही दशा उन लोगों की होती है, जो विवेक-भ्रष्ट हो जाते हैं, उनका भी अधःपतन गङ्गा की ही तरह सौ-सौ तरह होता है ।

The Ganges falls from Heaven on the Head of Lord Shiva, from the head of Shiva to the mountain, from that lofty mountain to the earth. From there, she descends on the lower plains. Once she is in the plains, she continues seeking the lower and lower land until she finally reaches the sea. This is what idiots do with their life. They tend to take the path of least resistance to reach the lowest level possible.

शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रोनिशितांकुशेन समदो दण्डेन गौर्गर्दभः ।
व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैः मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ।। 11 ।।

अर्थ:
अग्नि को पानी से शांत किया जा सकता है, छाते से सूर्य की धूप को, तीक्ष्ण अङ्कुश से हाथी को, लकडी से मदोन्मत्त भैंसे या घोड़े को काबू में किया जा सकता है; अलग अलग दवाईयों से रोग, और विविध मन्त्रों से विष दूर हो सकता है; सभी चीज़ के लिए शास्त्रों में औषध है, लेकिन मूर्ख के लिए कोई औषध नहीं है ।

Fire can be quenched by water, the heat of the sun can be avoided by holding up an umbrella, a wild elephant can be controlled by a sharp hook, a bull or a donkey by a stick; illness (can be got over) by taking medicines in the proper way, and poison can be eradicated by the use of various charms. A remedy has been ordained by the Shastras for everything, but there is no medicine for a fool.

साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।। 12 ।।

अर्थ:
जो मनुष्य साहित्य और संगीत कला से विहीन है, यानि जो साहित्य और संगीत शास्त्र का जरा भी ज्ञान नहीं रखता या इनमें अनुराग नहीं रखता, वह बिना पूँछ और सींग का पशु है । यह घास नहीं खाता और जीता है, यह इतर पशुओं का परम सौभाग्य है ।

A person destitute of literature, music or the arts is as good as an animal without a trail or horns. It is the good fortunes of the animals that he doesn’t eat grass like them.

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।। 13 ।।

अर्थ:
जिन्होंने न विद्या पढ़ी है, न तप किया है, न दान ही दिया है, न ज्ञान का ही उपार्जन किया है, न सच्चरित्रों का सा आचरण ही किया है, न गुण ही सीखा है, न धर्म का अनुष्ठान ही किया है – वे इस लोक में वृथा पृथ्वी का बोझ बढ़ाने वाले हैं, मनुष्य की सूरत-शकल में, चरते हुए पशु हैं ।

Those who have neither knowledge nor penance, nor liberty, nor knowledge, nor good conduct, nor virtue, nor the observance of duties, pass their life in this world of mortals like beasts in human form and are only a burden on the planet.

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह।
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वप ।। 14 ।।

अर्थ:
बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।

It is better to roam with the wild beasts in dense forest and difficult mountains than to live in the mansions of Lord Of the gods Indra in company of a fool.

विद्वतपद्धति

शास्त्रोपस्कृत शब्द सुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयागमाः
विख्याताः कवयो वसंति विषये यस्य प्रभोर्निर्धनाः|
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य सुधियस्त्वर्थं विनापीश्वराः
कुत्स्याःस्युः कुपरीक्षैर्न मणयो यैरर्घतः पातिताः।। 15 ।।

अर्थ:
जिन कवियों की वाणी शास्त्राध्ययन की वजह से शुद्ध और सुन्दर है, जिनमें शिष्यों को पढ़ाने की योग्यता है, जो अपनी योग्यता के लिए सुप्रसिद्ध हैं – ऐसे विद्वान् जिस राजा के राज्य में निर्धन रहते हैं वह राजा निस्संदेह मूर्ख है । कविजन तो बिना धन के भी श्रेष्ठ ही होते हैं । रत्नपारखी अगर रत्न का मोल घटा दे तो रत्न का मूल्य काम न हो जायेगा, रत्न का मूल्य तो जितना है उतना ही बना रहेगा, मूल्य घटने वाला अनाड़ी समझ जायेगा ।

If the celebrated poets who are eloquent with the usage of beautiful words refined by the knowledge of the scriptures; who have gathered and mastered enough knowledge to be imparted through disciples efficiently; are in your state without any wealth then it is the apathy of the ruler! The men of wisdom are rich even without the material wealth! Precious gems get despised by those who do not have the expertise to appraise them, and appear less in value; but gems never ever lose their real worth!

हर्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा
ह्यार्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम् ||
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धनं
येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते ।। 16 ।।

अर्थ:
विद्या एक ऐसा धन है जो एक चोर को भी नहीं दिखाई देता है पर फिर भी जिस के पास भी यह धन होता है वह सदैव सुखी रहता है | निश्चय ही विद्या प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को दान देने से यह दान दाता के सम्मान में तथा स्वयं भी निरन्तर वृद्धि प्राप्त करता है और कल्पान्त तक (लाखों वर्षों तक ) इसका नाश नहीं हो सकता है | इसी लिये विद्या को लोग एक गुप्त धन कहते हैं .और इसी लिये महान राजा भी ऐसे विद्या धन से संपन्न व्यक्ति के प्रति अपने गर्व को त्याग कर उसका सम्मान करते हैं | भला ऐसे व्यक्ति से कौन स्पर्धा कर सकता है ?

Oh Kings ! cast off your pride before those who possess the secret treasure of wisdom. A treasure which remains invisible to a thief and  which always augments some unique indescribable happiness, which largely increases even though constantly given to those who desire it and which  is not destroyed even at the time of universal of destruction. Who can ever compete with such persons?

अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमंस्था
स्तृणमिव लघुलक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।
अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां
न भवति बिसतन्तुवरिणं वारणानाम् ।। 17 ।।

अर्थ:
हे राजाओं ! जिन्हें परमार्थ साधन की कुञ्जी मिल गयी है, उन्हें आत्मज्ञान हो गया है, उनका आपलोग अपमान न कीजिये क्योंकि उनको तुम्हारी तिनके जैसे तुच्छ लक्ष्मी उसी तरह नहीं रोक सकती जिस तरह नवीन मद की धरा से सुशोभित श्याम मस्तक वाले मदोन्मत्त गजेंद्र को कमाल की डण्डी का सूत नहीं रोक सकता ।

Do not insult those men of wisdom who have attained the Supreme Knowledge! The material wealth is as worthless as a piece of grass for them! Do not ever restrain them. A lotus stalk cannot hold back the elephants whose temple-regions are darkened by the streaks of fresh rut.

अम्भोजिनीवनवासविलासमेव,
हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता ।
न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां,
वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः ।। 18 ।।

अर्थ:
अगर विधाता हंस से नितान्त ही कुपित हो जाय, तो उसका कमलवन का निवास और विलास नष्ट कर सकता है, किन्तु उसकी दूब और पानी को अलग अलग कर देने की प्रसिद्ध चतुराई की कीर्ति को स्वयं विधाता भी नष्ट नहीं कर सकता ।

Highly irritated Bramha can destroy for the swan the enjoyment of residing in beds of lotuses, but he can not deprive him of his fame about the natural skill of separating milk from water.

केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।। 19 ।।

अर्थ:
बाजूबन्द, चन्द्रमा के समान मोतियों के हार, स्नान, चन्दनादि के लेपन, फूलों के श्रृंगार और सँवारे हुए, बालों से पुरुष की शोभा नहीं होती; पुरुष की शोभा केवल संस्कार की हुई वाणी से है; क्योंकि और सब भूषण निश्चय ही नष्ट हो जाते है, किन्तु वाणी-रुपी भूषण सदा वर्तमान रहता है ।

Bracelets do not adorn a man;Neither do the necklaces shining bright like the moon nor bathing in scented waters;not anointment with fragrant pastes; not the flowers; nor decorated hair; but it is refined and polished speech alone which adorns him. All other ornaments are destructible and will diminish with time but ornament of refined and polished speech remains forever.

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकारी यशःसुखकारी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता
विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः ।।20 ।।

अर्थ:

विद्या मनुष्य का सच्चा रूप और छिपा हुआ धन है; विद्या मनुष्य को भोग, सुख और सुयश देने वाली है; विद्या गुरुओं की भी गुरु है, परदेश में विद्या ही बन्धु का काम करती है, विद्या ही परम देवता है, राजाओं में विद्या का ही मान है, धन का नहीं। जिसमें विद्या नहीं, वह पशु के समान है ।

Knowledge indeed makes a man more presentable; it is a valuable treasure which is always well-guarded and concealed. It gives us glory and happiness. It is the teacher of all the teachers. Knowledge is our friend and relative in foreign countries. Knowledge is the supreme divinity. It is knowledge that is appreciated by Kings- not money or material wealth. A man without knowledge is nothing but an animal.

क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं, किमिरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधिः किं फलम् ।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनः, किमु धनैर्वुद्यानवद्या यदि
व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् ।। 21 ।।

अर्थ:
यदि क्षमा है तो कवच की क्या आवश्यकता ? यदि क्रोध है तो शत्रुओं की क्या जरुरत है ? यदि स्वजातीय है तो अग्नि का क्या प्रयोजन ? यदि सुन्दर ह्रदय वाले मित्र हैं, तो आशुफलप्रद दिव्य औषधियों से क्या लाभ ? यदि दुर्जन है तो सर्पों से क्या ? यदि निर्दोष विद्या है तो धन से क्या प्रयोजन ? यदि लज्जा है तो जेवरों की क्या जरुरत ? यदि सुन्दर कविताशक्ति है तो राजवैभव का क्या प्रयोजन ?

If man has patience what need has he of an Armour, if he has anger what other enemy need he fear. If he has relatives what need of any fire, if he has a true friend what use has he of medicines of potent virtue; if there be bad people around him why should he fear serpents; if he has flawless learning what worth are riches to him, if he has sense of shame what other ornament does he require; if he has good poems what pleasure can he have from a kingdom.

दाक्षिण्यं स्वजने, दया परजने, शाट्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने, नयो नृपजने, विद्वज्जनेऽप्यार्जवम् ।
शौर्यं शत्रुजने, क्षमा गुरुजने, नारीजने धूर्तता
ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः ।। 22 ।।

अर्थ:

जो अपने रिश्तेदारों के प्रति उदारता, दूसरों पर दया, दुष्टों के साथ शठता, सज्जनों के साथ प्रीति, राज सभा में नीति, विद्वानों के आगे नम्रता, शत्रुओं के साथ क्रूरता, गुरुजनों के सामने सेहेनशीलता और स्त्रियों में धूर्तता या चतुरता का बर्ताव करते हैं – उन्ही कला कुशल नर पुंङ्गवो से लोक मर्यादा या लोक स्थिति है; अर्थात जगत उन्ही पर ठहरा हुआ है ।

Indulgence towards one’s own people, kindness to strangers, caution with respect to the wicked, love for the good people, politic behavior with kings, straightforwardness in dealings with the learned, bravery with enemies, forbearance towards elders, shrewdness with regard to the fair sex; those who are versed in these and the like arts are the persons on whom rests the preservation of social order.

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं ,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं ,
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ।। 23 ।।

अर्थ:
सत्संगति, बुद्धि की जड़ता को हरती है, वाणी में सत्य सींचती है, सम्मान की वृद्धि करती है, पापों को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और दशों दिशाओं में कीर्ति को फैलाती है । कहो, सत्संगति मनुष्य में क्या नहीं करती ?

Bracelets do not adorn a man;Neither do the necklaces shining bright like the moon nor bathing in scented waters;not anointment with fragrant pastes; not the flowers; nor decorated hair; but it is refined and polished speech alone which adorns him. All other ornaments are destructible and will diminish with time but ornament of refined and polished speech remains forever.

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ।। 24 ।।

अर्थ:
जो पुण्यात्मा कवि श्रेष्ठ श्रृंगार आदि नव रसों में सिद्ध हस्त हैं, वे धन्य हैं । उनकी जय हो ! उनकी कीर्ति रूप देह को बुढ़ापे और मृत्यु का भय नहीं ।

The great poets who are perfect masters in their art and who are therefore perfect in the expression of sentiments in their composition are indeed worthy of respect and glory.The wonderfully composed state of their bodies being made up of pure immortal fame is quite free from the fearful influences of age and death.

सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः
स्निग्धं मित्रमवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः ।
आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं
तुष्टे विष्टपकष्टहारिणि हरौ सम्प्राप्यते देहिना ॥ 25॥

अर्थ:
सदा चरणपरायण पुत्र, पतिव्रता सती स्त्री, प्रसन्नमुख स्वामी, स्नेही मित्र, निष्कपट नातेदार, केशरहित मन, सुन्दर आकृति, स्थिर संपत्ति और विद्या से शोभायमान मुख, ये सब उसे मिलते हैं जिस पर सर्व मनोरथों के पूर्ण करनेवाले स्वर्गपति कृष्ण भगवान् प्रसन्न होते हैं अर्थात विश्वेश लक्ष्मीपति नारायण की कृपा बिना उत्तमोत्तम पदार्थ नहीं मिलते ।

A well-conducted son, a devoted wife, a liberal master, a loving friend, an honest servant, a mind free from even the least anxiety, a handsome form, abiding riches, a mouth, purified by learning—all these can be gained by a man when Lord Vishnu the destroyer of the troubles of the world is pleased.

प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् ।
तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः ॥ 26॥

अर्थ:

जीव हिंसा न करना, पराया धन हरण करने से मन को रोकना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यनुसार दान करना, पर-स्त्रियों की चर्चा न करना और न सुन्ना, तृष्णा के प्रवाह को तोडना, गुरुजनो के आगे नम्र रहना और सब प्राणियों पर दया करना – सामान्यतया, सब शास्त्रों के मत से ये सब मनुष्य के कल्याण के मार्ग हैं ।

Abstinence from destroying life, restraint in depriving others of their wealth, speaking the truth, timely liberality according to one’s power, not even gossiping about the young ladies of others, checking the stream of covetousness, reverence for elders, compassion towards all creatures—this is the universal path to happiness violating no rules or ordinances of any Shastras.

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥27॥

अर्थ:

नीच मनुष्य, विघ्न होने के भय से काम को आरम्भ ही नहीं करते । मध्यम मनुष्य कार्य को आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु विघ्न होते ही उसे बीच में ही छोड़ देते हैं, परन्तु उत्तम मनुष्य जिस काम को आरम्भ कर देते हैं, उसे विघ्न पर विघ्न होने पर भी, पूरा करके ही छोड़ते हैं ।

Weak minded people do not begin anything at all through fear of difficulties, mediocre begin a work but abandon it no sooner obstacle come in their way, but strong minded person though repeatedly hindered by difficulties do not give up what they have once begun.

असन्तो नाभ्यर्थाः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः ।
प्रिया न्यायया वृत्ति र्मलिनमसभंगेऽप्यसुकरम्।।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महताम्।
सतां केनोद्रिष्टं विषमसिधाराव्रत मिदम् ॥ 28 ॥

अर्थ:
सत्पुरुष दुष्टों से याचना नहीं करते, थोड़े धन वाले मित्रों से भी कुछ नहीं मांगते, न्याय की जीविका से संतुष्ट रहते हैं, प्राणों पर बन आने पर भी पाप कर्म नहीं करते, विषाद काल में वे ऊँचे बने रहते हैं यानी घबराते नहीं और महत पुरुषों के पदचिन्हों का अनुसरण करते हैं । इस तलवार की धार के सामान कठिन व्रत का उपदेश उन्हें किसने दिया ? किसी ने नहीं, वे स्वभाव से ही ऐसे होते हैं । मतलब ये है कि सत्पुरुषों में उपरोक्त गुण किसी के सिखाने से नहीं आते, उनमें ये सब गुण स्वभाव से या पैदाइशी होते हैं ।

मान-शौर्य-पद्धति

क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राणोऽपि कष्टां दशाम्
आपन्नोऽपि विपन्नदीधितिरिति प्राणेषु नश्यत्स्वपि ।
मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भपिशितग्रासैकबद्धस्पृहः
किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहतामग्रेसरः केसरी  ॥ 29 ॥

अर्थ:
जो सिंह माननीयों में अगुआ है और जो सदा मतवाले हाथियों के विदारे हुए मस्तक के ग्रास का चाहनेवाला है, वह चाहे कितना ही भूख, बुढ़ापे के मारे शिथिल, शक्तिहीन अत्यंत दुःखी और तेजहीन क्यों न हो जाय – पर वह प्राणनाश का समय आने पर भी, सूखी हुई, सड़ी घास खाने को हरगिज़ तैयार न होगा ।

The lion, the foremost among the proud, has unparalleled eagerness for swallowing a mouthful out of the temples broken for  himself of a great intoxicated elephant; does he—although emaciated by hunger, weakened by old age, almost exhausted and come to a miserable plight, with all his vigor gone, and even on the verge of death—ever feed upon withered grass ? This is the very nature of the people who are strong. Age is not a deterring factor for the valorous men. 

स्वल्पं स्नायुवसावशेषमलिनं निर्मांसमप्यस्थि गोः
श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये ।
सिंहो जम्बुकमङ्कमागतमपि त्यक्त्वा निहन्ति द्विपं
सर्वः कृच्छगतोपि वाञ्छति जनः सत्त्वानुरूपं फलम् ।। 30 ।।

अर्थ:
कुत्ता, गाय प्रभृत्ति पशु का जरा सा पित्त और चर्बी लगा हुआ मलिन और मांसहीन छोटा सा हाड का टुकड़ा पाकर – जिससे उसकी क्षुधा शांत नहीं हो सकती – अत्यन्त प्रसन्न होता है, लेकिन सिंह गोद में आये हुए सियार को भी त्याग कर हाथी के मरने को दौड़ता है ।

A dog rejoices over a little bone destitute of flesh and filthy with small remains of tendons and fat on it, though it does not appease his hunger. (Whereas) The lion rejects a jackal even though he may have come under his paw and kills an elephant. Each one sets his desire on an object according to his inborn nature although he may be in distress.

लाङ्गूलचालनमधश्चरणावपातम्
भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च ।
श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु
धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्कते ॥ 31 ॥

अर्थ:
कुत्ते को देखिये, कि वह अपने रोटी देने वाले के सामने पूँछ हिलाता है, उसके चरणों में गिरता है, जमीन पर लेट कर उसे अपना मुह और पेट दिखता है, उधर श्रेष्ठ गाज को देखिये, कि वह अपने खिलाने वाले की तरफ धीरता से देखता है और सैकड़ों तरह की खुशामदें करा के ही खाता है।

The dog falls down at the feet of one who gives him food, wags his tail, and prostrating himself on the ground shows his (upturned) mouth and belly to him; but the lordly elephant, on the other hand, calmly looks on and eats, his food only when entreated with various flattering words.

स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ 32 ॥

अर्थ:
इस परिवर्तनशील जगत में मर कर कौन जन्म नहीं लेता? जन्म लेना उसी का सार्थक है, जिसके जन्म से वंशनकी गौरव वृद्धि या उन्नति हो ।

Who, indeed, that is once dead in this revolving world is not born  again ? But that man is born by whose birth bis family attains to dignity.

कुसुमस्तबकस्येव द्वे गती स्तो मनस्विनाम् ।
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य विशीर्यते वनेડथवा ॥ 33 ॥

अर्थ:
फूलों के गुच्छे की तरह महापुरुषों की गति दो प्रकार की होती है – या तो वे सब लोगो के सिर पर ही विराजते हैं अथवा वन में पैदा होकर वन में ही मुरझा जाते हैं ।

The position of the high-minded is two fold as in the set  of a bunch of flowers, either to be on the head of the people, or wither away in a forest.

सन्त्यन्येડपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषा
स्तान्प्रत्येषविशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।
द्वावेव ग्रसते दिनेश्वरनिशाप्राणेश्वरौ भासुरौ
भ्रान्तः पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषीकृतः ॥ 34 ॥

अर्थ:
आकाश में बृहस्पति प्रभृत्ति और भी पांच छः ग्रह श्रेष्ठ हैं, पर असाधारण पराक्रम दिखाने की इच्छा रखनेवाला राहु इन ग्रहों से बैर नहीं करता । यद्यपि दानवपति का सिर मात्र अवशेष रह गया है तो भी वह अमावस्या और पूर्णिमा को – दिनेश्वर सूर्य और निशानाथ चन्द्र को ही ग्रास करता है।

There are some five or six planets ( besides the sun and the moon ) with Brihaspati at their head, who are held in esteem; Rahu desirous of figuring in special valour does not show enmity towards any of them. The Lord of the demons ( Rahu ) though he has nothing left him of his form but his head, devours at conjunction and opposition only the splendid ruler of the day and the lord of the night. Mark this, oh ! brother.

वहति भुवनश्रेणीं शेषः फणाफलकस्थितां
कमठपतिना मध्येपृष्ठं सदा स विधार्यते ।
तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरा-
दहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः ॥ 35 ॥

अर्थ:
शेषनाग ने चौदह भुवनों की श्रेणी को अपने फन पर धारण कर रखा है, उस शेषनाग को कच्छपराज ने अपनी पीठ के मध्य भाग पर धारण कर रखा है, किन्तु समुद्र ने इन कच्छपराज को भी हलकी सी चीज समझ कर अपनी गोद में रख छोड़ा है । इससे प्रत्यक्ष है, कि बड़ो के चरित्र की विभूति की कोई सीमा नहीं है ।

Shesha (a chief serpent known as Shesha) bears the multitude worlds that rest on (its) the flat surface of a surface’s hood. That (Sesha) is always borne by the chief tortoise on the middle of (its) back. The ocean makes it (the chief tortoise) also dependent on (its) laps with ease. Ah Ah! The glory of the character of the great is limitless.

वरं पक्षच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिश-
प्रहारैरुद्गच्छद्बहलदहनोद्गारगुरुभिः ।
तुषाराद्रेः सूनोरहह पितरि क्लेशविवशे
न चासौ सम्पातः पयसि पयसां पत्युरुचितः ॥ 36 ॥

अर्थ:
हिमालय पुत्र मैनाक ने पिता को संकट में छोड़ कर, अपनी रक्षा के लिए समुद्र की शरण ली – यह काम उसने अच्छा नहीं किया । इससे तो यही अच्छा होता, कि मैनाक स्वयं भी मदोन्मत्त इन्द्र के अग्निज्वाला उगलनेवाले वज्र से अपने भी पंख कटवा लेता ।

It would have been better if ‘Mainaaka’ the son of ‘Himavaan’, had given up his life-forces by the blows dealt out by the arrogant Indra with his ‘Vajra’ weapon when he (Mainaaka) had annoyed Indra by the loud noises of the fire rising by the constant collision of mountains as he jumped about in the sky. It was not the right thing to do that he entered the waters of the ‘Ocean-Lord’ to save his own lives when his father was withering in pain (by those blows)!

यदचेतनोડपि पादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः ।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृतविकृतिं कथं सहते ॥ 37 ॥

अर्थ:
जब चेतना रहित सूर्यकान्त मणि भी सूर्य किरण रूप पैरों के लगने से जल उठती है, तब चेतना सहित तेजस्वी पुरुष, पर का किया अपमान कैसे सह सकते हैं ?

Even if inert by nature, the ‘Sun-stone’ blazes red in hue (with anger) when the Sun steps on it (sun rays fall on it)! How then can a man who has the shine of consciousness put up with the insulting encroachments of others?

सिंहः शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः ॥ 38 ॥

अर्थ:
सिंह चाहे छोटा बालक भी हो, तो भी वह मद से मलीन कपोलो वाले उत्तम गज के मस्तक (मदोन्मत्त हाथी के गण्डस्थल) पर ही चोट करता है । यह तेजस्वियों का स्वभाव ही है । निस्संदेह अवस्था तेज का कारण नहीं होती।

The lion even if it is just a cub, when elephants are seen, pounces on their hard temple region darkened by ichor immediately. This is the very nature of the people who are strong. Age is not a deterring factor for the valorous men.

धन महिमा

जातिर्यातु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छतु
शीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः संदह्यतां वह्निना ।
शौर्ये वैरिणि वज्रमाशुनिपतत्वर्थोડस्तु नः केवलं
येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे ॥ 39 ॥

अर्थ:
यदि जाति पाताल को चली जाय, सारे गुण पाताळ से भी नीचे चले जाएं, शील पर्वत से गिर कर नष्टभो जाये, स्वजन अग्नि में कर भस्म हो जाएं और वैरिन शूरता पर वज्रपात हो जाये – तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन हमारा धन नष्ट न हो, हमें तो केवल धन चाहिए, क्योंकि धन के बिना मनुष्य के सारे गुण तिनके की तरह निकम्मे हैं ।

Let the jaati (caste, occupation) sink to the nether world. Let all good qualities go down deeper still. Let good conduct fall from the top of a hill. Let all relatives be burnt in a fire. Let valor against the enemy be struck by the thunderbolt. Let us have only wealth (money). Without money, all good qualities are nothing more than a bundle of grass.

तानीन्द्रियाणि सकलानि तदेव कर्म
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहितः वचनं तदेव
त्वन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् ॥ 40 ॥

अर्थ:
सारी इन्द्रियां वे की वे ही हैं, काम भी सब वैसे ही हैं, परंतु एक धन की गर्मी बिना वही पुरुष और का और हो जाता है। निस्संदेह यह एक विचित्र बात है ।

Its really wonderful that a man deprived of wealth instantly becomes quite a different and changed being, notwithstanding his being still the master of his former senses, actions, and the same bright Intellect and power of speech!

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ॥ 41 ॥

अर्थ:
जिसके पास धन है, वही कुलीन, पण्डित, शास्त्रज्ञ, वक्ता और दर्शनीय है । इससे सिद्ध हुआ कि सारे गुण धन में ही हैं ।

He who has wealth he alone is born of a good family; he alone is a scholar; he alone is a master of all scriptures; he alone can recognize the merits of others; he alone is eloquent; he alone is handsome! All good qualities take shelter in wealth! All these qualities are attributed to a man possessing wealth whether or not these qualities actually reside in him.

दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनश्यति यतिः संगात्सुतो लालना-
द्विप्रोડनध्ययनात्कुलं कुतनयात् शीलं खलोपासनात् ।
ह्रीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रया-
न्मैत्री चाप्रणयात्समृद्धिरनयात्त्यागात्प्रमादाद्धनम् ॥ 42 ॥

अर्थ:
दुष्ट मन्त्री से राजा, सन्सारियों की सङ्गति से सन्यासी, लाड से पुत्र, न पढ़ने से ब्राह्मण, कुपुत्र से कुल, खल की सेवा से शील, मदिरा पीने से लज्जा, देखभाल न करने से खेती, विदेश में रहने से स्नेह, प्रीती न करने से मित्रता, अनीति से संपत्ति और अंधाधुंध खर्च करने से संपत्ति नष्ट हो जाती है ।

A king perishes by misguided consultation of a minister; a recluse,  by the company of others; a son, by pampering; a Brahmin, by neglecting studies; a family, by a badly behaved son; good character, by seeking the company of the wicked; demureness, by drinking alcohol; agriculture, by lack of regular supervision; affection in the family, by continuous tours outside; friendship, by not maintaining love; prosperity, by acting against the law; money, by discarding or through mistakes!

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयः भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ 43 ॥

अर्थ:
दान, भोग और नाश – धन की यही तीन गति है । जिसने न दिया और न भोगा उसके धन की तीसरी गति होती है ।

Charity, enjoyment, and destruction are the only three possible ways money can end up in. If a man does not give it to others, nor enjoys himself, his wealth ends up in the third possibility i.e. destruction.

मणि: शाणोल्लीढ: समरविजयी हेतनिहतो
मदक्षिणो नाग: शरदि सरित: श्यानपुलिनाः ।
कलाशेषश्चन्द्र: सुरत्मृदित बालवनिता
तनिम्ना: शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु जनाः ॥ 44 ॥

अर्थ:
सान पर खरादी हुई मणि, हथियारों से घायल विजयी योद्धा, मदक्षीण हाथी, शरद ऋतू की सूखे किनारों और अल्पजळ वाली नदी, कलाहीन दूज का चन्द्रमा, सुरत के मर्दन चुम्बन आदि से थकी हुई नवयुवती और अपना सारा ही धन दान करके दरिद्र हुए सज्जन पुरुष – ये सब अपनी हानि या दुर्बलता से ही शोभा पाते हैं ।

A Gem polished on a whet-stone; the winner of battle who is wounded by a weapon; an elephant which is emaciated with the flow of rut; a river with dry sand collected on its banks in the autumn; a moon with just one crescent left to become full; charming young ladies exhausted by amorous sports: and men who have lost their wealth by offering all of it in charity; shine well, though with a slight lack of luster!

राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेतां
तेनाद्य वत्तमिव लोकममुं पुषाण ।
तस्मिंश्च सम्यगनिइां परिपोष्यमाणे
नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः ॥ 46 ॥

अर्थ:
हे राजा ! अगर तुम पृथ्वी रुपी गाय को दुहना चाहते हो, तो प्रजा रुपी बछड़े का पालन पोषण करो । यदि तुम प्रजा रुपी बछड़े का अच्छी तरह पालन पोषण करोगे, तो पृथ्वी स्वर्गीय कल्पलता की तरह आपको नाना प्रकार के फल देगी ।

King! If you milk this earth-cow, then nourish the country like the calf. If that calf is well-taken care of day and night, the earth will give various fruits like the (wish-fulfilling) ‘Kalpa-creeper’!

सत्याअन्रिता च परूशा प्रियवादिनी च
हिन्सा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।
नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च
वेश्यान्गनेव न्रिप नीतिरनेकरूपा ॥ 47 ॥

अर्थ:
कहीं सत्य और कहीं मिथ्या, कहीं कटुभाषिणी और कहीं प्रियभाषिणी, कहीं हिंसा और कहीं दयालुता, कहीं लोभ और कहीं दान, कहीं अपव्यय करने वाली और कहीं धन सञ्चय करने वाली राजनीति भी वेश्या की भाँति अनेक प्रकार के रूप धारण कर लेती है ।

The policy of kings resembles a prostitute in its being both truth and untruth, cruel and kind, merciful and unmerciful, greedy for money, and also is very charitable and expensive and lucrative.

विद्या कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां दानं भोगो मित्रसंरक्षणम् च ।
येषामेते षड्गुणा न प्रवृत्ताः कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण ॥ 48 ॥

अर्थ:
जिन पुरुषों में विद्या, कीर्ति, ब्राह्मणो का पालन, दान, भोग और मित्रों की रक्षा – ये छः गुण नहीं हुए, उनकी राजा की सेवा वृथा है ।

Authority, fame, the guarding of Brahmans, liberality, feasting, protection of friends : what profit is there to those who serve kings if they have not gained these six blessings ?

यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद् वा धनम्
तत् प्राप्नोति मरूस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम् ।
तद्धीरो भव , वित्तवत्सु कॄपणां वॄत्तिं वॄथा मा कॄथा:
पश्य पयोनिधावपि घटो गॄह्णाति तुल्यं पय: ॥ 49 ॥

अर्थ:
थोड़ा या बहुत – जितना धन विधाता ने तुम्हारे भाग्य में लिख दिया है, उतना ही तुम्हें निश्चय ही मरुस्थल में भी मिल जायेगा; उससे ज्यादा तुमको सुमेरु पर भी नहीं मिल सकता; इसलिए सन्तोष करो, ढाणियों के सामने वृथा दीनता से याचना न करो; क्योंकि, देखो, घड़ा, समुद्र और कुएं से समान (समान मात्रा में) ही जल ग्रहण करता है ।

‘Whatever fate has written on the forehead of each, that shall he obtain, whether it be poverty or riches. His abode may be the desert, but he shall gain no more if he live even on Mount Meru. Let your mind be constant. Do not be miserable through envy of the rich, The pitcher takes up the same quantity of water whether it be from the well or the ocean.

त्वमेव चातकाधारोડसीति केषां न गोचरः ।
किमम्भोदवराડस्माकं कार्पण्योक्तिः प्रतीक्ष्यते ।। 50 ।।

अर्थ:
हे श्रेष्ठ मेघ ! तुम्हीं हम पपहीयों के एकमात्र आधार हो, इस बात को कौन नहीं जानता ? हमारे दीन वचनों की प्रतीक्षा क्यों करते हो ?

“Who does not know that thou, O cloud, art the one support of the Chitaka? Why, O most beneficent cloud! dost thou wait for our cry of misery ?”

रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्।
अम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशा:।
केचिद् वृष्टिभिरार्र्वयन्ति धरणिं गर्जन्ति केचिद् वृथा।
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वच:।। 51 ।।

अर्थ:

हे हे चातक ! मित्र सावधान होकर क्षण भर के लिए मेरे वचनों को सुनो । आकाश में बहुत से बादल हैं किन्तु सभी एक जैसे नहीं होते हैं । उनमें से कुछ बादल वर्षा करके पृथ्वी को गीला कर देते हैं और कुछ तो बेकार गरजते रहते हैं । इसलिए जिन-जिन बादलों को तुम आकाश में देखते हो, उन-उन के समक्ष अपने दीनतापूर्ण वचन मत बोलो ।

O Chatak..! Be attentive and listen to me carefully for a few minutes. There are so many clouds in the sky but all are not alike. Few of them make the earth wet by bringing the showers but few make noises only. Therefore, whom you see in the sky, do not make your begging request before them.

अकरुणत्वम् अकारण विग्रह: परधने परयोषिति च स्पृहा ।
सुजनबन्धुजनेष्वसहिष्णूता प्रकृतिसिध्दमिदं हि दुरात्मनाम् ।। 52 ।।

करुणा हीनता, अकारण विग्रह, परधन और परनारी की कामना, स्वजनों और मित्रों के प्रति असहिष्णुता, दुरात्माओं के यह स्वाभाव सिद्ध लक्षण हैं।

Cruelty, causeless quarrels, the desire for another’s wife or money, envy of the good, or of one’s own relatives. These are the natural characteristics of wicked men.

दुर्जनो परिहर्तव्यो विद्यया भूपितोऽपि सन् ।
मणिनालङ्कृतः सर्प: किमसौ न भयङ्करः ।। 53 ।।

अर्थ:
दुर्जन विद्वान् हो तो भी उसे त्याग देना ही उचित है, क्योंकि मणि से भूपित सर्प क्या भयङ्कर नहीं होता?

(जिस तरह मणि धारण करने से सर्प की भयङ्करता नष्ट नहीं हो जाती; उसी तरह विद्या अध्ययन कर लेने से दुर्जनो की स्वाभाविक दुष्टता नहीं चली जाती ।)

53. An evil man should be avoided though he be adorned with learning, Is a snake less feared because it is ornamented with jewels?

 

जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं
शूरे निघृणता ऋजौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि ।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे
तत्को नाम गुणो भवेत् स गुणिनां यो दुर्जनैर्नांकितः ।। 54 ।।

अर्थ:
लज्जावानों को मूर्ख, व्रत उपवास करने वालों को ठग, पवित्रता से रहने वालों को धूर्त, शूरवीरों को निर्दयी, चुप रहने वालों को निर्बुद्धि, मधुर भाषियों को दीन, तेजस्वियों को अहङ्कारी, वक्ताओं को बकवादी(वाचाल) और शांत पुरुषों को असमर्थ कह कर दुष्टों ने गुणियों के कौन से गन को कलङ्कित नहीं किया ?

54. The moderate man’s virtue is called dulness; the man who lives by rigid vows is considered arrogant; the pureminded is deceitful ; the hero is called ‘unmereiful ; the sage is contemptuous; the polite man is branded as
servile, the noble man as proud; the eloquent man is called a chatterer; freedom from passion is said to be feebleness. Thus do evil-minded persons miscall the virtues of the good.

लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् ।
सौजन्यं यदि किं गुणैः स्वमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ।। 55 ।।

अर्थ:
यदि लोभ है तो और गुणों की जरुरत ? यदि परनिन्दा या चुगलखोरी है, तो और पापों की क्या आवश्यकता ? यदि सत्य है, तो तपस्या से क्या प्रयोजन ? यदि मन शुद्ध है तो तीर्थों से क्या लाभ ? यदि सज्जनता है तो गुणों की क्या जरुरत ? यदि कीर्ति है तो आभूषणों की क्या आवश्यकता ? यदि उत्तम विद्या है तो धन का क्या प्रयोजन ? यदि अपयश है तो मृत्यु से और क्या होगा ?

लोभ से ही काम, क्रोध और मोह की उत्पत्ति होती है और मोह से मनुष्य का नाश होता है । लोभ ही पापों का कारण है । लोभ से बुद्धि चञ्चल हो जाती है । लोभ से तृष्णा होती है । तृष्णार्त को दोनों लोकों में सुख नहीं । धन के लोभी को, असन्तोषी को, चञ्चल मन वाले को और अजितेन्द्रिय को सर्वत्र आफत है । लोभ सचमुच ही सब अवगुणों की खान है । लोभ होते है सब अवगुण अपने आप चले आते हैं । दुष्टों के मन में पहले लोभ ही होता है ; इसके बाद वे परनिन्दा, परपीड़न और हत्या प्रभृति कुकर्म करते है । रावण को सीता पर पहले लोभ ही हुआ था । दुर्योधन को पाण्डवों की सम्पत्ति पर पहले लोभ ही हुआ था इसलिए मनुष्य को लोभ-शत्रु से बिलकुल दूर ही रहना चाहिए । जिसमें लोभ नहीं, वह सच्चा विद्वान् और पण्डित है । निर्लोभ को जगत में आपदा कहाँ ? अगर विद्वान् के मन में लोभ है तो वो विद्वान् कहा, मूर्ख है ।

If a man be greedy, what further vice can he have ? What sin can be worse than backbiting? What need has the truthful man of penances? What need has the pureminded man of a sacred bathing-place? What virtue is beyond generosity? If there be greatness of mind, what adornment is required? Ifa man be learned, what necessity is there of the society of others? If disgrace overtake a man, why need he fear death ?

 

शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी ।
सरो विगतवारिजं मुखमनक्षरं स्वाकृते: ।।
प्रभुर्धनपरायण: सततदुर्गत: सज्जनो ।
नृपाङ्गणगत: खलो मनसि सप्त शल्यानि मे ।। 56 ।।

अर्थ:
दिन का मलिन चन्द्रमा, यौवनहीन कामिनी, कमलहीन सरोवर, निरक्षर रूपवान, कञ्जूस स्वामी या राजा, सज्जन की दरिद्री और राज सभा में दुष्टों का होना – ये सातों हमारे दिल में कांटे कि तरह चुभते हैं ।

The moon obscured by the daylight, a woman no longer young, a pond destitute of water-lilies, a handsome man who talks nonsense, a prince entirely devoted to money, a good man always in calamity, an evil man dwelling in a king’s court—these are seven thorns in
my mind.

न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भूभुजाम्।
होतारमपि जुह्वानं स्पृष्टो दहति पावकः।। 57 ।।

अर्थ:
प्रचण्ड क्रोधी राजाओं का कोई प्यारा नहीं । जिस तरह हवन करने वाले को भी अग्नि छूते ही जला देती है, उसी तरह राजा भी किसी के नहीं ।

A king full of wrath hath no friend. The sacred fire burns even the priest who offers the sacrifice if he touches it.

दुर्जनपद्धति Concerning Evil Men.

मानौंन्मूकः प्रवचनपटुः वाचको जल्पको वा
धृष्टः पार्श्वे वसति च तथा दूरतश्चाप्रगल्भः ।
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजात:
सेवाधर्म परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ।। 58 ।।

अर्थ:
नौकर यदि चुप रहता है तो मालिक उसे गूंगा कहता है; यदि बोलता है तो उसे बकवादी कहता है; यदि पास रहता है तो ढीठ कहता है; यदि खरी-खोटी सुन लेता है तो डरपोक कहता है और यदि नहीं सहता है तो उसे नीच कुल का कहता है । मतलब यह है कि सेवा धर्म – पराई चाकरी बड़ी ही कठिन है; योगियों के लिए भी अगम्य है ।

The man who preserves a respectful silence is considered dumb; the man who talks agreeably is considered forward ; the man who stands close by is thought troublesome; he who stands far off, cold-hearted; the patient man is counted as faint-hearted; the impetuous man is
called ill-bred. So difficult, indeed, are the laws by which behaviour is regulated, impossible to be learnt even by an ascetic.

उद्भासिताखिलखलस्य विशृङ्खलस्य
प्राग्जातविस्मृतनिजाधमकर्मवृत्तेः ।
दैवादवाप्तविभवस्य गुणद्विषोऽस्य
नीचस्य गोचरगतैःसुखमास्यते कैः ।। 59 ।।

अर्थ:
जो दुष्टों का सिरताज है, जो निरंकुश या मर्यादा-रहित है, जो पूर्व-जन्मों के कुकर्मों के कारण परले सिरे का दुराचारी है, जो सौभाग्य से धनी हो गया है और जो उत्तमोत्तम गुणों से द्वेष रखने वाला है – ऐसे नीच के अधीन रहकर कौन सुखी हो सकता है ?

59. Is it possible to take pleasure in the society of a low man, dissolute, whose evil is all evident, whose wicked acts are the result of former births, who hates virtue, and who lives by chance ?

 

आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्ध-परार्धभिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।। 60 ।।

अर्थ:
दुष्टों की मैत्री, दोपहर-पाहिले की छाया के समान, आरम्भ में बहुत लम्बी चौड़ी होती है और पीछे क्रमशः घटती चली जाती है; किन्तु सज्जनो की मैत्री दोपहर बाद की छाया के समान पहले बहुत थोड़ी सी होती है और पीछे क्रमशः बढ़ने वाली होती है ।

The friendships formed between good and evil men differ. The friendship of the good, at first faint like the morning light, continually increases; the friendship of the evil at the very beginning is great, like the light of midday, and dies away like the light of evening.

 

मॄगमीनसज्जनानं तृणजलसन्तोपविहितवृत्तिनाम् ।
लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति ।। 61 ।।

अर्थ:
हिरन, मछली और सज्जन क्रमशः तिनके, जल और सन्तोष पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं; पर शिकारी, मछुए और दुष्ट लोग अकारण ही इनसे वैर भाव रखते हैं ।

Deer, fish, and virtuous men, who only require grass, water, and peace in the world, are wantonly pursued by huntsmen, fishermen, and envious people.

सुजनपद्धति (सज्जन प्रशंसा)  The Character of the Good.

वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता
विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादादभ्यम् ।

भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खलेष्वेते
येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः ।। 62 ।।

अर्थ:
सज्जनों की सङ्गति की अभिलाषा, पराये गुणों में प्रीति, बड़ो के साथ नम्रता, विद्या का व्यसन, अपनी ही स्त्री में रति, लोक-निन्दा से भय, शिव की भक्ति, मन को वश में करने की शक्ति और दुष्टों की सङ्गति का अभाव – ये उत्तम गुण जिनमें हैं, उन्हें हम प्रणाम करते हैं ।

Desire for the companionship of the good, love for the virtues of others, reverence for spiritual teachers, diligence in acquiring wisdom, love for their own wives, fear of the world’s blame, reverence for Siva, self-restraint, freedom from the acquaintance with evil men—wherever men dwell endowed with virtues like these, they are always reverenced.

 

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ,प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।। 63 ।।

अर्थ:
विपत्ति में धीरज, अपनी वृद्धि में क्षमा, सभा में वाणी की चतुराई, युद्ध में पराक्रम, यश में इच्छा, शास्त्र में व्यसन – ये छः गुण महात्मा लोगों में स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं ।
ऐसे गुण स्वभाव से ही, जिन में हो, उन को महात्मा जानो । इससे जो महात्मा बनना चाहे वह ऐसे गुणों के सेवन के लिए अत्यंत उद्योग करे ।

Firmness in adversity, restraint in prosperity, eloquence in the assembly, boldness in war, the desire of glory, study in the Scriptures—these are the natural characteristics of the virtuous,

प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः।
प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः ।।
अनुत्सेको लक्ष्म्यां निरभिभवसारा परकथाः ।
सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ।। 64 ।।

अर्थ:
दान को गुप्त रखना, घर आये का सत्कार करना, पराया भला करके चुप रहना, दूसरों के उपकार को सबके सामने कहना, धनी होकर गर्व न करना और पराई बात निन्दा-रहित कहना – ये गुण महात्माओं में स्वाभाव से ही होते हैं।

Secret generosity, cheerful hospitality to strangers, not speaking in public about one’s own good deeds, proclaiming the benefits received from others, freedom from pride in prosperity, due respect in speaking of others— this is the vow of exceeding difficulty, taught by the good.

करे श्लाघ्यस्त्याग: शिरसि गुरुपादप्रणयिता ।
मुखे सत्या वाणी विजयि भुजयोर्वीर्यमतुलम् ।।
हृदि स्वस्था वृत्ति: श्रुतमधिगतैकव्रतफलं ।
र्विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ।। 65 ।।

अर्थ:
बिना ऐश्वर्य के भी महापुरुषों के हाथ दान से, मस्तक गुरुजनो को सर झुकाने से, मुख सत्य बोलने से, जय चाहने वाली दोनों भुजाएं अतुल पराक्रम से, ह्रदय शुद्ध वृत्ति से और कान शास्त्रों से शोभा के योग्य होते हैं ।

Liberality is the fitting virtue for the hand, reverence towards spiritual teachers for the head, true speech for the mouth, surpassing power for the arms of a mighty man, content for the heart, the holy Veda rightly understood for the ears; the man of noble mind who is the possessor of these adornments has no need of outward pomp.

संपत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलं ।
आपत्सु च महाशैलशिलासंघातकर्कशम् ।। 66 ।।

अर्थ:
सम्पत्तिकाल में महापुरुषों का चित्त, कोमल से भी कोमल रहता है और विपद काल में पर्वत की महँ शिला की तरह कठोर हो जाता है ।

The heart of the wise is soft as a lotus flower in prosperity, but in adversity it is as firm as a mountain rock.

 

सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते ।
मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते ।।
स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते ।
प्रायेणोत्तममध्यमाधमदशा संसर्गतो देहिनाम् ।। 67 ।।

अर्थ:
गर्म लोहे पर जल की बूँद पड़ने से उसका नाम भी नहीं रहता; वही जल की बूँद कमल के पत्ते पर पड़ने से मोती सी हो जाती है और वही जल की बूँद स्वाति नक्षत्र में समुद्र की सीप में पड़ने से मोती हो जाती है । इससे सिद्ध होता है, कि संसार में अधम, मध्यम और उत्तम गन प्रायः संसर्ग से ही होते हैं ।

Water will not remain on hot iron, but standing on a lotus leaf it shines with the beauty of a pearl; and if a drop of water fall under a favourable star into the middle of an oyster in the sea, it straightway becomes a pearl. So is the disposition of men, good, tolerable, or bad, according to the society in which they live.

यः प्रणीयेत्सुचरितै पितरं स पुत्रो ।
यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम्।।
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं य-
देतत्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ।। 68 ।।

अर्थ:
अपने उत्तम चरित्र से पिता को प्रसन्न रखे वही पुत्र है, अपने पति का सदा-सर्वदा भला चाहे वही स्त्री है और सम्पद और विपद – दोनों अवस्थाओं में एक सा रहे वही मित्र है । जगत में ये तीनो भाग्यवानो को ही मिलते हैं ।

The son who delights his father by his good actions, the wife who seeks only her husband’s good, the friend who is the same in prosperity and in adversity—these three things are the reward of virtue.

एको देवः केशवो वा शिवो वा एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा ।
एको वासः पत्तने वा वने वा एका नारी सुन्दरी वा दरी वा ।। 69 ।।

अर्थ:
एक देवता की आराधना करनी चाहिए – केशव की या शिव की; एक ही मित्र करना चाहिए – राजा हो या तपस्वी, एक ही जगह बसना चाहिए – नगर में या वन में और एक से ही विलास करना चाहिए – सुन्दरी नारी से या कन्दरा से ।

 

The Way of Liberality.

नम्रत्वेनोन्नमन्त: परगुणकथनै: स्वान्गुणान्ख्यापयन्त:
स्वार्थान्सम्पादयन्तो विततप्रियतरारम्भयत्ना: पदार्थे।
क्षान्त्यैवाक्षेपरूक्षाक्षरमुखान्दुर्मुखान्दूषयन्त:
सन्त: साश्चर्यचर्या जगति बहुमता: कस्य नाभ्यर्चनीया:।। 70 ।।

अर्थ:
नम्रता से ऊँचे होते हैं,पराये गुणों का कीर्तन करके अपने गुणों को प्रसिद्ध कर लेते हैं – पराया भला करने से दिल लगाकर अपना मतलब भी बना लेते हैं और निन्दा करनेवाले दुष्टों को अपनी क्षमाशीलता से ही लज्जित करते हैं – ऐसे आश्चर्यकारक आचरण से सभी के माननीय सत-पुरुष संसार में किसके पूज्य्नीय नहीं हैं ?

Those who are ennobled by humility: those who display their own virtues by relating the virtues of other men: those who in their own business always consider the interests of others: those who hate the evil speaker, and the mouth that continually utters harsh and impatient words:—good men whose admirable behaviour is shown in virtues like these are always held in reverence, Who would not respect them ?

भवन्ति नम्रास्तरव फलोद्गमैः नवांबुभिर्भूमिविलंबिनो घनाः ।
अनुद्धता: सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ।। 71 ।।

 जब् वृक्षों में फल लगते हैं तो वे फलों  के भार से झुक जाते हैं , और नये जल से परिपूर्ण बादल भी पृथ्वी पर बरसने के लिये आकाश में नीचे उतर आते हैं। इसी तरह सज्जन और महान व्यक्ति भी समृद्ध होने पर भी नम्र और सहृदय बने रहते हैं  क्यों कि परोपकार करने वालों स्वभाव ही ऐसा होता है।

Branches of trees bent down with arrival of new fruits. Clouds filled with water hang lower in sky. Good men with wealth become meek. Similar is the nature of benevolent.

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन।। 72 ।।

कानों में कुंडल पहन लेने से शोभा नहीं बढ़ती, अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है। हाथों की सुन्दरता कंगन पहनने से नहीं होती बल्कि दान देने से होती है। सज्जनों का शरीर भी चन्दन से नहीं बल्कि परहित में किये गये कार्यों से शोभायमान होता है।

Our ears get beautified by listening to the knowledge passed on to us by our forefathers through oral tradition and not by wearing beautiful earrings.. Our hands get dignified by giving donations and not by wearing wrist bands and bangles. Similarly, the personality of noble and righteous persons gets embellished through benevolent deeds done by them and not by merely applying sandalwood paste over their body.

पापान्निवारयति योजयते  हिताय गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति  |
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति  सन्ताः ।। 73 ।।

महान संतों का कहना है कि एक सच्चे मित्र के लक्षण हैं कि वह हमें पापकर्म करने से रोकता है, हमारे हित के कार्यों को करने  के लिये हमें  प्रेरित करता है, हमारी गोपनीय बातों को प्रकट नहीं करता है ,आपत्ति के समय में भी हमारा साथ नहीं छोडता है, तथा आवश्यकता पडने पर सहायता के लिये तत्पर रहता है।

Wise and noble persons have pronounced that the symptoms of a true friend are that he  prevents us from committing sinful deeds and urges us to do things that are advantageous to  us, keeps our  secrets and  brings out  our virtues and qualities, does not desert us when we face misfortune, and helps us whenever we are in need of any help.

पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्।
नाभ्यर्थितो जलधरोSपि जलं ददाति सन्तः स्वयं परहिते सुकृताभियोगा:।। 74 ।।
जैसे बिना किसी के द्वारा प्रार्थना किये ही सूर्य कमल-समूह को विकसित करता है, जैसे चन्द्रमा कैरव–समूह को प्रफुल्लित करता है तथा जिस प्रकार मेघ प्राणियों को जल देता है, उसी प्रकार महापुरुष स्वाभाविक, स्वयं ही परहित में लगे रहते हैं।
The Sun helps flower the lotus without asking for it. The Moon charms the water lily without asking for it. The clouds rain water without asking for it. The noble souls do good for others without asking for it.
एते सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान्‌ परित्यज ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये।
तेऽमी मानवराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे।। 75 ।।
 वे ही व्यक्ति सज्जन और महान कहलाते हैं जो अन्य लोगों की सहायता करने के लिये अपने स्वार्थ का भी परित्याग कर देते हैं | ये सामान्य
जन ही होते हैं परन्तु जनहित के कार्य में अपने हितों की परवाह न कर भी सदैव संलग्न रहते हैं | इस के विपरीत ऐसे भी राक्षसी प्रवृत्ति के मनुष्य होते हैं जो अपने स्वार्थ के लिये अन्य लोगों के हितों को नष्ट कर देते हैं | ये दुष्ट व्यक्ति बिना किसी कारण के ऐसा क्यों करते हैं यह मैं नहीं जानता हूं |
These, who are engaged in benefitting others after sacrificing their own purposes are the great men. Those who benefit others without opposing their needs are the common men. Those who destroy others’ well being for doing good to themselves are demons in human form. However those who destroy other peoples’ well being without any cause whatsoever, we do not know who they are!
क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणाः दत्ता पुरा तेऽखिलाः
क्षीरोत्तापमवेक्ष्य तेन पयसा स्वात्मा कृशानौ हुतः।
गन्तुं पावकमुन्मनस्तदभवद्दृष्ट्वा तु मित्रापदम्
युक्तं तेन जलेन शाम्यति सतां मैत्री पुनस्तादृशी।। 76 ।।
दूध ने प्रथम आत्मगत जल को अपने सभी गुण प्रदान कर दिये । तत्पश्चात् (आग पर दूध को रखने पर) दूध को जलता हुआ देख उस जल ने अपने आप को अग्नि में झोंक दिया, अपने मित्र (जल का) की आपत्ति को देखकर दूध भी अग्नि में जाने के लिए व्याकुल हो उठा और अन्त में जल से मिलकर ही शान्त हुआ । वस्तुतः सज्जनों की मित्रता ऐसी ही होती है।
The milk had given earlier all it’s qualities to the water who had mingled with it. On seeing the heat applied (sorrow befallen) to the milk that water sacrificed it’s body in the fire (to reduce it.). Observing the calamity that had come to his friend, the milk rose up to jump to the fire. Indeed it is proper that milk is pacified by sprinkling water into it.
इतः स्वपिति केशवः कुलमितस्तदीयद्विषां
इतश्च शरणार्थिनां शिखरिणां गणाः शेरते ।
इतोऽपि वडवानलः सहं समस्तसंवर्तकैः
अहो! विततमूर्जितं भरसहं च सिन्धोर्वपुः ।।77।।
अहो! समुद्र का शरीर कितना विशाल, बलवान् और भार उठाने में समर्थ है, जिसमें एक ओर साक्षात् भगवान् विष्णु शयन करते हैं, तो दूसरी ओर उनके शत्रु राक्षसों का कुल सोता है । एक ओर शरणाभिलाषी मैनाकादि पहाड़ों का समूह है तो दूसरी ओर प्रलयकालिक मेघों के साथ वडवाग्नि रहता है ।
What a spacious, strong and stout body the ocean possesses? Here lies Vishnu, there his enemises. Here you can see the groups of the mountains seeking shelter (from the bolt of Indra), and here lies Vadavagni along with all the destructive fires thatdestory the universe at the time of world destruction.

तृष्णां  छिन्धि  भज क्षमां  जहि  मदं  पापे  रतिं  मा कृथाः 
सत्यम्  ब्रूह्यनुपाहि  साधुपदवीं  सेवस्व  विद्वज्जनान् ||
मान्यान्मानय विद्विषोSप्यनुनय  ह्याछादय स्वान्गुणा-
न्कीर्तिं  पालय  दुःखिते  कुरु  दयामेतत्सतां  लक्षणम् ।।78।।

लोभी न होना,  क्षमावान् , अहंकारी और मद्यप (शराबी) न होना,  पापकर्मों में कभी भी  लिप्त न रहना , सदा सच  बोलना , साधु संतों के द्वारा
प्रदर्शित सन्मार्ग  का ही अनुसरण करना , विद्वान व्यक्तियों की  सेवा में मन लगाना, सम्मानित व्यक्तियों का उचित सम्मान करना, अपने से द्वेष करने वाले व्यक्तियों से भी समझौता करने की भावना, अपने गुणों और प्रसिद्धि को छुपाये रखने की प्रवृत्ति.  दुःखी व्यक्तियों पर दया कर उनकी सहायता करना , ये  सभी शुभ लक्षण महान् और सज्जन व्यक्तियों में पाये जाते हैं।
Not greedy at all ,  forgiving in nature, without pride, passion and not addicted to intoxication, never indulging in sinful deeds,  always truthful, follower of  the righteous path shown by our sages , always remaining in the company and service of learned persons ,.giving due respect to honourable persons, always ready for conciliation with the opponents,  hiding his own fame and virtues, being kind towards grieving persons and helping them , all these virtues are symptomatic of noble and virtuous persons.
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ।।79।।
मन, वाणी और शरीर में सकर्मरूपी अमृत से परिपूर्ण , तीनों लोकों का अनेक प्रकार के उपकारों से कल्याण करने वाले और दूसरों के थोडे से भी गुणों को सर्वदा बहाड की तरह (बहुत बडा) मानकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सत्पुरुष (संसार में) कितने हैं, अर्थात् ऐसे सज्जन बहुत कम है, दुर्लभ हैं ।
How many noble souls are there who, in their thoughts, speech and action are filled with nectar of auspiciousness, who by their many good and benevolent deeds please others in the three worlds, who appreciating even very minute good qualities of others as something mountainous, rejoice in the expansion of their own heart?

धैर्य प्रशंसा 

किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव।
मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेण कङकोलनिम्बकुटजा अपि चन्दनाः स्यु:।।80।।

उस सुवर्ण पर्वत (सुमेरु) या चाँदी के पर्वत (कैलाश) से क्या लाभ जिन पर उगे हुए वृक्ष साधारण वृक्ष जैसे ही रह जाते हैं। हम तो उस मलयाचल को अधिक धन्य मानते हैं, जिसका आश्रय लेने से कङकोल (दालचीनी), नीम तथा कुटज (कुरैया) के वृक्ष भी चन्दन के समान सुगन्धित हो जाते हैं।

What profit is there in Meru, the mpuntain of gold, or of the hill of silver, where the trees that grow remain the same trees without any change? We honour the hills of Malaya, for by contact with them common trees like the Trophies Aspera, the bitter nimba, and the Karaya become themselves even as sandal trees.

रत्नैर्महार्हैस्तुपुर्न देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम् ।
सुधां विना न प्रपयुरविरामं न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः ।। 81 ।।

अर्थ:
समुद्र मथते समय, देवता नाना प्रकार के अमोल रत्न पाकर भी संतुष्ट न हुए – उन्होंने समुद्र मथना न छोड़ा। भयानक विष से भयभीत होकर भी, उन्होंने अपना उद्योग न त्यागा । जब तक अमृत न निकल आया उन्होंने विश्राम न किया – अविरत परिश्रम करते ही रहे । इससे यह सिद्ध होता है, कि वीर पुरुष अपने निश्चित अर्थ – इच्छित पदार्थ – को पाए बिना, बीच में घबरा कर अपना काम नहीं छोड़ बैठते ।

The gods rested not until they had gained possession of the nectar : they were not turned aside from the search by pearls of great price, nor by fear of terrible poison. Even so men of constant mind do not rest until they have completely accomplished their object.

क्वचिदभूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनम ।
क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि: ।।
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो ।
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम्।। 82 ।।

अर्थ:
कभी जमीन पर सो रहते हैं और कभी उत्तम पलंग पर सोते हैं, कभी साग-पात खाकर रहते हैं, कभी दाल-भात कहते हैं, कभी फटी पुराणी गुदड़ी पहनते हैं और कभी दिव्य वस्त्र धारण करते हैं – कार्यसिद्धि पर कमर कस लेने वाले पुरुष सुख और दुःख दोनों को ही कुछ नहीं समझते ।

At one time a man may lie on the ground, at another he may sleep on a couch ; at one time he may live on herbs, at another on boiled rice ; at one time he may wear rags, at another a magnificent robe. The man of constant rnind, bent on his purpose, counts neither state as pleasure nor pain.

ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो ।
ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः । ।
अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभावितुर्धर्मस्य निर्व्याजता ।
सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ।। 83 ।।

अर्थ:
ऐश्वर्य का भूषण सज्जनता, शूरता का भूषण अभिमान रहित बात करना, ज्ञान का भूषण शान्ति, शास्त्र देखने का भूषण विनय, धन का भूषण सुपात्र को दान देना, तप का भूषण क्रोधहीनता, प्रभुता का भूषण क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है, किन्तु अन्य सब गुणों का कारण और सर्वोत्तम भूषण ‘शील’ है ।

Courtesy is the ornament of a noble man, gentleness of speech that of a hero ; calmness the ornament of knowledge, reverence that of sacred learning; liberality towards worthy objects is the ornament of wealth, freedom from wrath that of the ascetic; clemency is the ornament of princes, freedom from corruption that of justice. The natural disposition, which is the parent of the virtues in each, is their highest ornament.

निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्ववन्तु।
लक्ष्मी: समाविषतु गच्छतु वा यथेष्ठम् ।।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा।
न्यायात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।। 84 ।।

अर्थ:
नीति निपुण लोग निन्दा करें चाहे स्तुति, लक्ष्मी आवे और चाहे चली जाय, प्राण अभी नाश हो जाएं और चाहे कल्पान्त में हों – पर धीर पुरुष न्यायमार्ग से जरा भी इधर-उधर नहीं होते ।

धीर-वीर पुरुष किसी प्रकार के लालच या भय से अपने निश्चित किये हुए नीतिमार्ग से ज़रा भी विचलित नहीं होते, जबकि नीच पुरुष ज़रा सा लालच या भय दिखने से ही नीति मार्ग से फिसल पड़ते हैं । महाराणा प्रताप को अकबर की ओर से अनेक प्रकार के प्रलोभन और भय दिखाए गए, पर वे ज़रा भी न डिगे – अपने नीति मार्ग पर अडिग होकर जमे रहे । महात्मा प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकश्यप ने अनेक तरह के लालच दिए, भय दिखाए और शेष में उन्हें पर्वत शिखर से समुद्र में गिराया, अग्नि में जलाया; पर वे अपने निश्चित किये नीति या धर्म-मार्ग से ज़रा भी विचलित न हुए । सच्चा मर्द वही है, जो सर्वस्व नाश होने या फांसी चढ़ाये जाने के भय से भी, न्यायमार्ग को न छोड़े ।

The constant man may be blamed or praised by those skilled in discerning character ; fortune may come to him or may leave him ; he may die to-day or in ten thousand years’ time ; but for all that he does not turn aside from the path of righteousness.

भग्नाशस्य करण्डपीडितंतेनोर्म्लानेन्द्रियस्य क्षुधा ।
कृत्वा खुर्विवरं स्वयं निपतितो नक्तं मुख्य भोगिनः ।।
तप्तस्तत्पिशितेन सत्वरमसौ तेनैव थातः पथा ।
लोकाःपश्यत दैवमेव हि नृणां वृद्धौ क्षये कारणं ।। 85 ।।

अर्थ:
एक सर्प पिटारी में बन्द पड़ा हुआ, जीवन से निराश, शरीर से शिथिल और भूख से व्याकुल हो रहा था । उस समय एक चूहा रात के वक्त, कुछ खाने की चीज़ पाने की आशा से, पिटारे में छेद करके घुसा और सर्प के मुंह में गिरा । सर्प उसे खाकर तृप्त हो गया और उसी चूहे के किये हुए छेद की राह से बाहर निकल कर स्वतंत्र – आज़ाद हो गया । इस घटना को देखकर , मनुष्यों को अपनी वृद्धि और क्षय का एकमात्र कारण दैव को ही समझना चाहिए ।

A rat fell by night into the jaws of a serpent whose body had been squeezed into a basket, and who was halfdead
with hunger. The serpent, revived by his meal, went forth, and immediately meeting with the same fate as the rat, perished. Be content, my friends, with your lot ! The success or failure of men is in the hands of fate.

पतितोऽपि कराघातैरुत्पततत्येव कन्दुकः।
प्रायेण साधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः।। 86 ।।

अर्थ:
जिस तरह हाथ से गिराने पर भी गेंद ऊँची ही उठती है, उसी तरह साधु वृत्ति पर चलने वालों की विपत्ति भी सदा नहीं रहती ।

A ball, though it fall to the ground, flies up again by the strokes of the hand. Even so the misfortunes of good men are not often lasting.

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बंधुर्यं कृत्वा नावसीदति ।। 87 ।।

अर्थ:
आलस्य मनुष्यों के शरीर में रहने वाला घोर शत्रु है और उद्योग के सामान उनका कोई बन्धु नहीं है; क्योंकि उद्योग करने वे मनुष्य के पास दुःख नहीं आते ।

Idleness is a great enemy to mankind : there is no friend like energy ; for if you cultivate that it will never fail.

छिन्नोऽपिरोहत तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न विप्लुता लोके ।। 88 ।।

अर्थ:
कटा हुआ वृक्ष फिर चढ़ कर फैल जाता है, क्षीण हुआ चन्द्रमा भी फिर धीरे धीरे बढ़ कर पूरा हो जाता है, इस बात को समझ कर, संतपुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते।

The tree that is cut down grows again ; the moon that wanes waxes again after a time. Thus do wise men reflect, and, though distressed, are not overwhelmed.

नेता यस्य बृहस्पति: प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाः ।
स्वर्गो दुर्गमनुग्रहः किल हरेरैरावतो वारणः ।।
इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्नः परैः संगरे ।
तद्युक्तं वरमेव दैवशरणं धिक् धिक् वृथा पौरुषं ।। 89 ।।

अर्थ:
जिसके बृहस्पति के सामान मन्त्री, वज्र-सदृश शास्त्र, देवताओं की सेना, स्वर्ग जैसा किला, ऐरावत जैसा वाहन और विष्णु भगवान् की जिन पर कृपा है – ऐसे अनुपम ऐश्वर्य वाला इन्द्र भी शत्रुओं से युद्ध में हारता ही रहा, इससे सिद्ध होता है, कि पुरुषार्थ वृथा और धिक्कार योग्य है । एकमात्र दैव ही सबकी शरण है ।

Indra, though guided by Vrihaspati, and armed with the thunderbolt ; though the deities were his soldiers, and
Vishnu his ally ; though Svarga was his citadel, and the elephant Airasvata his steed, was defeated. How resistless
is the power of fate ! How vain are human efforts !

कर्मायत्तं फलं पुंसां, बुद्धि: कर्मानुसारिणी।
तथापि सुधिया भाव्यं, सुविचार्यैव कुर्वता ।। 90 ।।

अर्थ:
यद्यपि मनुष्यों को कर्मानुसार फल मिलते हैं और बुद्धि भी कर्मानुसार हो जाती है; तथापि बुद्धिमानो को सोच विचार कर ही काम करने चाहिए ।

Discernment is the fruit of men’s actions, and is the result produced by deeds performed in another state : this must be carefully considered by the wise man who gives heed to all things.

खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैःसन्तापितो मस्तके ।
गच्छन्देशमनातपं विधिशात्तालस्य मूलं गतः ।।
तत्राप्यस्य महाफ़लेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः ।
प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः ।। 91 ।।

अर्थ:
किसी गंजे आदमी का सर धुप से जलने लगा । वह छाया की इच्छा से, दैवात एक ताड़ के वृक्ष के नीचे जाके खड़ा हो गया । उसके वह पहुँचते ही, एक बड़ा ताड़-फल उसके सर पर बड़े जोर से गिरा । उससे उसकी खोपड़ी फट गयी । इससे सिद्ध होता है, कि भाग्यहीन मनुष्य जहाँ जाता है, उसकी विपत्ति भी प्रायः उसके साथ साथ जाती है ।

A bald-headed man was scorched by the rays of the sun on his head, and seeking a shady place, went, under the guidance of fate, to the foot of a palm tree. While resting there, the fruit of the tree fell with a loud noise on his head and broke it. Even so, wherever the unfortunate man goes, he generally meets with disaster.

शशिदिवाकरयोग्रहपीडनं गजभुजङ्गमयोरपिबन्धनम् ।
मतिमतांचविलोक्य दरिद्रतां विधिरही ! बलवानिति मे मतिः ।। 92 ।।

अर्थ:
हाथी और सर्प में बंधन को देखकर, सूर्य और चन्द्रमा में ग्रहण लगते देखकर और बुद्धिमानो की दरिद्री देखकर – मेरी समझ में यही आता है, कि विधाता ही सबसे बलवान है ।

When I see the sun and moon exposed in the eclipse to the assaults of the demon ; when I behold the bonds which hold a serpent or an elephant ; when I behold the wise man in poverty, then the thought strikes me, ” How mighty is the power of fate !”

सृजति तावदशेपगुणाकरं पुरुषरत्नमलंकरणं भुवः ।
तदपि तत्क्षणभंगिकरोति चेदहह कष्टमपण्डितताविधे: ।। 93 ।।

अर्थ:
बड़े दुःख कि बात है, कि विधाता सब गुणों की खान और पृथ्वी के भूषण पुरुषरत्न को सृजन कर भी, उसकी देह को क्षण-भंगुर कर देता है । इसी से विधाता की मूर्खता ही प्रकट होती है ।

Fate brings forth an excellent man a very mine of virtue and in a moment works his ruin. Alas ! how unreasoning
is the action of fate !

पत्रं नैव यदा करीर विटपे दोषो वसन्तस्य किं
नोलुकोऽप्यव्लोकते यदि दिवा सूरस्य किं दूषणम् ।
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तत् मार्जितुः कः क्षमः ।। 94 ।।

अर्थ:
अगर करील के पेड़ में पत्ते नहीं लगते तो इसमें बसंत का क्या दोष है ? अगर उल्लू को दिन में नहीं सूझता, तो इसमें सूर्य का क्या दोष है ? अगर पापहीये के मुख में जल-धारा नहीं गिरती, तो इसमें मेघ का क्या दोष है ? विधाता ने जो कुछ भाग्य में लिख दिया है, उसे कोई भी मिटा नहीं सकता ।

It is not the fault of the spring that the leafless tree does not produce leaves ; it is not the fault of the sun that
the owl cannot see by day ; it is not the fault of the raincloud that the drops do not fall into the cuckoo’s mouth.
Who shall reverse that which fate has written on the forehead of each ?

कर्म प्रशंसा The Praise of Action

नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा ।
विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।।
फलं कर्मायत्तं किमरगणैः किं च विधिना ।
नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ।। 95 ।।

अर्थ:
देवताओं की हम सब वन्दना करते हैं, पर वे सब विधाता के अधीन दीखते हैं, इसलिए हम विधाता की वन्दना करते हैं, पर विधाता भी हमारे पूर्व जन्म के कर्मो के हिसाब से ही फल देता है । जब फल और विधाता, दोनों ही कर्म के वश में हैं, तब देवताओं और विधाता से क्या मतलब? कर्म ही सर्वोपरि है; इसलिए हम कर्म को नमस्कार करते हैं, जिसके खिलाफ विधाता भी कुछ नहीं कर सकता ।

We worship the gods, but are they not in the power of fate ? Destiny must be worshipped, for that is the sole giver of rewards to man proportioned to the acts of their former state. But the fruit of those acts depends upon the acts themselves ; why, then, should we worship either the god or destiny? Let us pay adoration to those works over which fate has no power.

ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे ।
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।।
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने, तस्मै नमः कर्मणे ।। 96 ।।

अर्थ:
जिस कर्म के बल से ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड भाण्डोदर में सदा कुम्हार का काम कर रहा है, विष्णु भगवान् दस अवतार लेने के महासंकट में पड़े हुए हैं, रूद्र हाथ में कपाल लेकर भीख मांगते रहते हैं और सूर्य आकाश में चक्कर लगता रहता है, उस कर्म को हम नमस्कार करते हैं ।

By means of destiny Brahma was constrained to work like an artificer in the interior of his egg ; by means
of destiny Vishnu was compelled to pass through ten incarnations of great difficulty ; by means of destiny Siva
was forced to live as a mendicant, bearing the skull in his hands for a pot ; by means of destiny the sun is compelled
to travel his daily course in the heaven. Adoration, therefore, be to works.

नैवाकृति: फलति नैव कुलं न शीलं ।
विद्यापि नैव न च यत्नकृतापि सेवा ।।
भाग्यानि पूर्वतपसा खलु संचितानि ।
काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः ।। 97 ।।

अर्थ:
मनुष्य को सुन्दर आकृति, उत्तम कुल, शील, विद्या और खूब अच्छी तरह की हुई सेवा – ये सब कुछ फल नहीं देते; किन्तु पूर्वजन्म के कर्म ही, समय पर, वृक्ष की तरह फल देते हैं ।

Neither beauty, nor greatness of family, nor force of character, nor learning, nor service, though performed with
care, but merit alone, gained from penances in a former state, will bring forth fruit to a man as a tree in its season.

वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ।। 98 ।।

अर्थ:
वन में, रण में, शत्रुओं में, आग में, समुद्र अथवा पर्वत की छोटी पर सोते हुए, आफत में पड़े हुए मनुष्य की रक्षा, पूर्व जन्म के पुण्य ही करते हैं ।

A man may be in a forest, or in war, or in the midst of fire, or among a host of enemies, or in the ocean, or
upon a high mountain ; he may be asleep or mad ; or he may be surrounded by difficulties ; yet the good actions
performed in a former state will profit him.

या साधूँश्च खलान्करोति विदुषो मूर्खान्हितान्द्वेषिणः
प्रत्यक्षं कुरुते परोक्षममृतं हलाहलं तत्क्षणात् ।
तामाराधय सत्क्रियां भगवतीं भोक्तुं फलं वाञ्छितं
हे साधो व्यसनैर्गुणेषु विपुलेष्वास्थां वृथा मा कृथाः ।। 99 ।।

अर्थ:
हे सज्जनो ! अगर आप मनोवांछित फल चाहते हैं, तो आप और गुणों में कष्ट और हठ से वृथा परिश्रम न करके केवल सत्क्रिया रुपी भगवती की आराधना कीजिये । वह दुष्टों को सज्जन, मूर्खों को पण्डित, शत्रुओं को मित्र, गुप्त विषयों को प्रकट और हलाहल विष को तत्काल अमृत कर सकती है ।

O wise man ! cultivate constantly divine virtue ; for that makes evil men good, the foolish wise, enemies well disposed, invisible things visible ; in a moment that turns poison into nectar ; that will give you the desired fruit of your acts. virtuous man ! do not vainly spend labour on acquiring mighty gifts with great pain !

गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यमादौ परिणतिरवधार्यां यत्नतः पण्डितेन।
अतिरभसकृतानां कर्मणानां विपत्तेः भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ।। 100 ।।

अर्थ:
कोई काम कैसा ही अच्छा बुरा क्यों न हो, काम करनेवाले बुद्धिमान को पहले, उसके परिणाम का विचार करके तब काम में हाथ लगाना चाहिए; क्योंकि बिना विचारे, अति शीघ्रता से किये हुए काम का फल, मरण काल तक ह्रदय को जलाता और कांटे की तरह खटकता है ।

The wise man, at the beginning of his actions, looks carefully to the end of them, that by their means he may be freed from births in another state. Actions performed with excessive haste are even as an arrow piercing the heart.

स्थाल्यां वैदूर्मय्यां पचति च लशुनं चान्दनैरीन्धनोघैः
सौवर्णेर्लाङ्गलाग्रैविलिखति वसुधामर्कमूलस्य हेतोः ।
छित्त्वा कर्पूर खण्डानवृतिमिह कुरुते कोद्रवाणाम् समन्तात्
प्राप्येमां कर्मभूमि न चरति मनुजो यस्तपो मद्भाग्यः ।। 101 ।।

अर्थ:
जो मन्दभागी, इस कर्मभूमि – संसार – में आकर तप नहीं करता, वह निस्संदेह उस मूर्ख की तरह है, जो लहसन को मरकतमणि के वासन में चन्दन के ईंधन से पकाता है; अथवा खेत में सोने का हल जोतकर आक की जड़ प्राप्त करना चाहता है अथवा कोदों के खेत के चारों तरफ कपूर के वृक्षों को काटकर उनकी बाढ़ लगाता है ।

The man who, placed in the world of action, does not walk piously, regarding his state hereafter, is as one who cooks the lees of sesame over a sandal-wood fire in a caldron of lapis-lazuli, or as one who ploughs with a golden share to cultivate swallow-wort, or as one who cuts down a grove of camphor to fence in a field of kodrava.

मज्जत्वंभसि यातु मेरुशिखर शत्रुञ्जय त्वाहवे
वाणिज्यं कृषिसेवनादिसकला विद्याः कलाः शिक्षतु ।
आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्नं परं
नो भाव्यं भवतीह कर्मवशतो भव्यस्य नाशः कुतः ।। 102 ।।

अर्थ:
चाहे समुद्र में गोते लगाओ; चाहे सुमेरु के सिर पर चढ़ जाओ; चाहे घोर युद्ध में शत्रुओं को जीतो; चाहे खेती, वाणिज्य-व्यापार और अन्यान्य सारी विद्या और कलाओं को सीखो; चाहे बड़े प्रयत्न से पखेरुओं की तरह आकाश में उड़ते फिरो; परन्तु प्रारब्ध के वश से अनहोनी नहीं होती और होनहार नहीं टलती ।

A man may dive into the sea, he may ascend to the top of Mount Meru, he may be victorious over his enemies, he may devote himself to merchandise, he may plough the earth, he may study all learning and all art, he may travel on the wings of a bird from one end of heaven to the other, but yet he shall suffer that which is fated him on earth, neither shall that fail which is destined for him.

भीम वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं
सर्वो जनः सुजनतामुपयातितस्य ।
कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा
यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य।। 103 ।।

अर्थ:
जिस मनुष्य के पूर्व जन्म के उत्तम कर्म – पुण्य – अधिक होते हैं, उनके लिए भयानक वन, नगर हो जाता है । सभी मनुष्य उसके हितचिंतक मित्र हो जाते हैं और सारी पृथ्वी उसके लिए रत्नपूर्ण हो जाती है ।

A terrible wood becomes a splendid city, and the whole world is filled with jewels, to that man who has performed righteous acts in his former existence ; all men reverence his virtues.

को लाभों गुणसङ्गमः किमसुखं प्राज्ञेतरैः
का हानिः समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्वे रतिः ।
कः शूरो विजितेन्द्रियः प्रियतमा कानुव्रता किं धनं
विद्या किं सुखमप्रवासगमनं राज्यं किमाज्ञाचलम् ।। 104 ।।

अर्थ:
लाभ क्या है? गुणियों की सङ्गति । दुःख क्या है ? मूर्खों का संसर्ग । हानि क्या है ? समय पर चूकना । निपुणता क्या है? धर्मानुराग । शूर कौन है ? इन्द्रियविजयी । स्त्री कैसी अच्छी है ? जो अनुकूल और पतिव्रता है । धन क्या है? विद्या । सुख क्या है ? प्रवास में न रहना । राज्य क्या है ? अपनी आज्ञा का चलना ।

What is most profitable ? Fellowship with the good. What is the worst thing in the world ? The society of evil men. What is the greatest loss ? Failure in one’s duty. Where the greatest peace ? In truth and righteousness. Who is the hero ? The man who subdues his senses. Who is best beloved ? The faithful wife. What is wealth ? Knowledge. What is the most perfect happiness ? Staying at home. What is royalty ? Command.

अप्रियवचनदरिद्रैः प्रियवचनाद्यैः स्वदारपरितुष्टैः ।
परपरिवादनिवृत्तैः काचित्क्वचिनमण्डिता वसुधा ।। 105 ।।

अर्थ:
जो अप्रिय वचनो के दरिद्री हैं, प्रिय वचनों के धनी हैं, अपनी ही स्त्री से सन्तुष्ट रहते हैं और पराई निन्दा से बचते हैं – ऐसे पुरुषों से कहीं कहीं की ही पृथ्वी शोभायमान है ।

The earth is variously adorned in various places ; by poor men whose words are of no account by rich men whose words are admired by those contented with their own wives by men who refrain from passing censure upon others.

कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम्।
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधः खिखा याति कदाचिदेव ।। 106 ।।

अर्थ:
धैर्यवान पुरुष घोर दुःख पड़ने पर भी अपने धैर्य को नहीं छोड़ता; क्योंकि प्रज्वलित अग्नि के उल्टा कर देने पर भी उसकी शिखा ऊपर ही को रहती है ।

The constant man loses not his virtue in misfortune. A torch may point towards the ground, but its flame will still point upwards.

कान्ताकटाक्षविशिखा न दहन्ति यस्य चित्तं न निर्दहति कोपकृषानुतापः ।
कर्पन्ति भूरिविपयाश्च न लोभपाशैर्लोकत्रयं जयति कृत्स्नमिदं स धीरः ।। 107 ।।

अर्थ:
स्त्रियों के कटाक्ष रुपी बाण जिसके ह्रदय को नहीं बेधते, क्रोध रुपी अग्नि ज्वाला जिसके अन्तः-करण को नहीं जलती और इन्द्रियों के विषय भोग जिसके चित्त को लोभ-पाश में बांधकर नहीं खींचते, वह धीर पुरुष तीन लोक को अपने वश में कर लेता है ।

The mind of the constant man is not pierced by the arrows shot from the glances of love ; he is not consumed by the fire of anger : worldly objects do not ensnare him in the net of covetousness ; he is the lord of the three worlds.

ऐकोनापि हि शूरेण पादाक्रान्तं महीतलम् ।
क्रियते भास्करेणेव परिस्फुरिततेजसा ।। 108 ।।

अर्थ:
जिस तरह एक तेजस्वी सूर्य सारे जगत को प्रकाशित करता है; उसी तरह एक शूरवीर साड़ी पृथ्वी पाँव तले दबाकर अपने वश में कर लेता है ।

The mighty earth, trodden by the feet of one hero, is lightened up with his exceeding great glory as though by the shining of the sun.

व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूष वर्षायते
यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतमं शीलं समुन्मीलति।। 109 ।।

अर्थ:
जिस पुरुष में समस्त जग को मोहने वाला शील है उसके लिए अग्नि जल सी जान पड़ती है; समुद्र छोटी नदी सा दीखता है, सुमेरु पर्वत छोटी सी शिला सा मालूम होता है, सिंह शीघ्र उसके आगे हिरन सा हो जाता है, सर्प उसके लिए फूलों की माला सा बन जाता है और विष अमृत के गुणों वाला हो जाता है ।

Through the power of constancy fire becomes even as water, the ocean becomes but a rivulet, Mount Meru becomes only a small stone, a lion becomes as harmless as an antelope, a savage beast becomes a garland of flowers, poison is turned into nectar. The constant man, by his constancy, turns the savage things in nature into the most gentle.

लज्जागुणौघजननीं जननीमिव स्वा-
मत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाम् ।
तेजस्विन: सुखमसूनपि संत्यजन्ति
सत्यव्रतव्यसनिनो न पुन: प्रतिज्ञां ।। 110 ।।

अर्थ:
सत्यव्रत तेजस्वी पुरुष अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग करने की अपेक्षा अपना प्राण त्याग करना अच्छा समझते हैं क्योंकि प्रतिज्ञा लज्जा प्रभृति गुणों के समूह की जननी और अपनी जननी की तरह शुद्ध ह्रदय और स्वाधीन रहने वाली है ।

Honourable men may cast aside life and happiness, but in as much as they are intent upon truth, they do not
cast off their truthfulness, the cause of modesty and of all the virtues, following them wherever they may go, pure in
heart, even as dear to them as their own mother.


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Shivesh Pratap

Hello, My name is Shivesh Pratap. I am an Author, IIM Calcutta Alumnus, Management Consultant & Literature Enthusiast. The aim of my website ShiveshPratap.com is to spread the positivity among people by the good ideas, motivational thoughts, Sanskrit shlokas. Hope you love to visit this website!

One thought on “नीति शतक के श्लोक हिंदी अंग्रेजी अर्थ सहित भर्तृहरि विरचितम् | Bhartrihari Neeti Shatak with Hindi & English Meaning

  1. Very good endeavour, sir !

    I shall be thankful; if I can get JPG image /MS WORD of Shloka # 83 ending with शीलं परम भूषणम.

    I think there are total 300 Shlokas by भर्तृहरि. Could find 110 with meaning here.

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