संस्कृत नीति श्लोक अर्थ सहित
अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका तॄणैर्गुणत्वमापन्नैर् बध्यन्ते मत्तदन्तिन:।
छोटी छोटी वस्तुएँ एकत्र करने से बडे काम भी हो सकते हैं। जैसे घास से बनायी हुर्इ डोरी से मत्त हाथी बांधा जा सकता है।
श्रिय: प्रसूते विपद: रुणद्धि, यशांसि दुग्धे मलिनं प्रमार्ष्टि ।
संस्कार सौधेन परं पुनीते, शुद्धा हि बुद्धि: किलकामधेनु:॥
शुद्ध बुद्धि निश्चय ही कामधेनु जैसी है क्योंकि वह धन-धान्य पैदा करती है; आने वाली आफतों से बचाती है; यश और कीर्ति रूपी दूध से मलिनता को धो डालती है; और दूसरों को अपने पवित्र संस्कारों से पवित्र करती है। इस तरह विद्या सभी गुणों से परिपूर्ण है।
शोको नाशयते धैर्य, शोको नाशयते श्रॄतम् ।
शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपु: ॥
शोक धैर्य को नष्ट करता है, शोक ज्ञान को नष्ट करता है, शोक सर्वस्व का नाश करता है । इस लिए शोक जैसा कोइ शत्रू नही है ।
आर्ता देवान् नमस्यन्ति, तप: कुर्वन्ति रोगिण: ।
निर्धना: दानम् इच्छन्ति, वॄद्धा नारी पतिव्रता ॥
संकट में लोग भगवान की प्राार्थना करते है, रोगी व्यक्ति तप करने की चेष्टा करता है । निर्धन को दान करने की इच्छा होती है तथा वॄद्ध स्त्री पतिव्रता होती है । लोग केवल परिस्थिती के कारण अच्छे गुण धारण करने का नाटक करते है ।
उपाध्यात् दश आचार्य: आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेण अतिरिच्यते ॥
आचार्य उपाध्यायसे दस गुना श्रेष्ठ होते है । पिता सौ आचार्याें के समान होते है । माता पितासे हजार गुना श्रेष्ठ होती है ।मनुस्मॄति
दूरस्था: पर्वता: रम्या: वेश्या: च मुखमण्डने ।
युध्यस्य तु कथा रम्या त्रीणि रम्याणि दूरत: ॥
पहाड दूर से बहुत अच्छे दिखते है । मुख विभुषित करने के बाद वैश्या भी अच्छी दिखती है । युद्ध की कहानिया सुनने को बहौत अच्छी लगती है । ये तिनो चिजे पर्याप्त अंतर रखने से ही अच्छी लगती है ।
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा ।
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: ॥
सत्य मेरी माता, ज्ञान मेरे पिता, धर्म मेरा बन्धु, दया मेरा सखा, शान्ति मेरी पत्नी तथा क्षमा मेरा पुत्र है । यह सब मेरे रिश्तेदार है ।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥
महान व्यक्तियों के मनमे जो विचार होता है वही वे बोलते है और वही कॄतिमेभी लाते है| उसके विपारित नीच लोगोंके मनमे एक होता है वै बोलते दुसरा है और करते तिसरा है।
न मर्षयन्ति चात्मानं संभावयितुमात्मना ।
अदर्शयित्वा शूरास्तू कर्म कुर्वन्ति दुष्करम् ॥
शूर जनों को अपने मुख से अपनी प्राशंसा करना सहन नहीं होता । वे वाणी के द्वारा प्रादर्शन न करके दुष्कर कर्म ही करते है ।
चलन्तु गिरय: कामं युगान्तपवनाहता: ।
कॄच्छे्रपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मन: ॥
युगान्तकालीन वायु के झोंकों से पर्वत भले ही चलने लगें परन्तु धैर्यवान् पुरूषों के निश्चल )दय किसी भी संकट में नहीं डगमगाते ।
एकेन अपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् ।
सह एव दशभि: पुत्रै: भारं वहति गर्दभी ॥
सिंहीन को यदि एक छावा भी है तो भी वह आराम करती है क्योंकी उसका छावा उसे भक्ष्य लाकर देता है । परन्तु गधी को दस बच्चे होने परभी स्वयं भार का वहन करना पडता है ।
विद्या मित्रं प्रावासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च ।
व्याधितस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य च ॥
विद्या प्रावास के समय मित्र है । पत्नी अपने घर मे मित्र है । व्याधी ग्रस्त शरीर को औषधी मित्र है तथा मॄत्यु के पश्च्यात धर्म अपना मित्र है ।
अधर्मेणैथते पूर्व ततो भद्राणि पश्यति ।
तत: सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति ॥
कुटिलता व अधर्म से मानव क्षणिक समॄद्वि व संपन्नता पाता है । अच्छा दैवका अनुभव भी करता है । शत्रु को भी जीत लेता है ।परन्तू अन्त मे उसका विनाश निश्चित है ।
लुब्धमर्थेन गॄणीयात् क्रुद्धमञ्जलिकर्मणा ।
मूर्खं छन्दानुवॄत्त्या च तत्वार्थेन च पण्डितम्॥
लालचि मनुष्यको धन (का लालच) देकर वश किया जा सकता है। क्रोधित व्यक्तिके साथ नम्र भाव रखकर उसे वश किया जा सकता है। मूर्ख मनुष्य को उसके इछानुरुप बर्ताव कर वश कर सकते है। तथ ज्ञानि व्यक्ति को मुलभूत तत्व बताकर वश कर सकते है।
आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा ।
पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो: ॥
शिला को पर्वत के उपर ले जाना कठिन कार्य है परन्तू पर्वत के उपर से नीचे ढकेलना तो बहुत ही सुलभ है । ऐसे ही मनुष्य को सद्गुणोसे युक्त करना कठिन है पर उसे दुर्गुणों से भरना तो सुलभ ही है ।
असभ्दि: शपथेनोक्तं जले लिखितमक्षरम् ।
सभ्दिस्तु लीलया प्राोक्तं शिलालिखितमक्षरम् ॥
दुर्जनो ने ली हुइ शपथ भी पानी के उपर लिखे हुए अक्षरों जैसे क्षणभंगूर ही होती है । परन्तू संतो जैसे व्यक्तिने सहज रूप से बोला हुआ वाक्य भी शिला के उपर लिखा हुआ जैसे रहता है ।
न प्राप्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥
संत तो वही है जो मान देने पर हर्षित नही होता अपमान होने पर क्रोधीत नही होता तथा स्वयं क्रोधीत होने पर कठोर शब्द नही बोलता ।
साहित्यसंगीतकलाविहीन: साक्षात् पशु: पुच्छविषाणहीन: ।
तॄणं न खादन्नपि जीवमान: तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥
जिस व्यक्ती को कला संगीत में रूची नही है वह तो केवल पूंछ तथा सिंग रहीत पशू है । यह तो पशूओं का सौभाग्य है की वह घास नही खाता!
गुणेषु क्रियतां यत्न: किमाटोपै: प्रयोजनम् विक्रीयन्ते न घण्टाभि: गाव: क्षीरविवर्जिता:॥
स्वयं मे अच्छे गुणों की वॄद्धी करनी चहिए| दिखावा करके लाभ नही होता। दुध न देनेवाली गाय उसके गलेमे लटकी हुअी घंटी बजानेसे बेची नही जा सकती।
सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्मर्धं त्यजति पण्डित: अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हि दु:सह: ।
जब सर्वनाश निकट आता है, तब बुद्धिमान मनुष्य अपने पास जो कुछ है उसका आधा गवानेकी तैयारी रखता है| आधेसे भी काम चलाया जा सकता है, परंतु सबकुछ गवाना बहुत दु:खदायक होता है।
को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरित: मॄदंगो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम्।
मुख खाद्य से भरकर किसको अंकीत नहि किया जा सकता। आटा लगानेसे मॄदुंग भी मधुर ध्वनि निकालता है।
परिवर्तिनि संसारे मॄत: को वा न जायते ।
स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्न्तिम् ॥
नितीशतक 32 इस जीवन मॄत्यु के अखंडीत चक्र में जिस की मॄत्यु होती ह क्या उसका पुन: जन्म नही होता? परन्तु उसीका जन्म, जन्म होता है जिससे उसके कुल का गौरव बढता है ।
सर्वार्थसंभवो देहो जनित: पोषितो यत: ।
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मत्र्य: शतायुषा ॥
एक सौ वर्ष की आयु प्रााप्त हुआ मनुष्य देह भी अपने माता पिता के ऋणोंसे मुक्त नही होता । जो देह चार पुरूषार्थोंकी प्रााप्ती का प्रामुख साधन ह,ै उसका निर्माण तथा पोषण जिन के कारण हुआ है, उनके ऋण से मुक्त होना असंभव है | श्रीमदभागवत 10|45|5
शरदि न वर्षति गर्जति वर्षति वर्षासु नि:स्वनो मेघ: नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजन: करोत्येव
शरद ऋतुमे बादल केवल गरजते है, बरसते नही|वर्षा ऋतुमै बरसते है, गरजते नही। नीच मनुश्य केवल बोलता है, कुछ करता नही|परन्तु सज्जन करता है, बोलता नही।
यदा न कुरूते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् ।
समदॄष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश: ॥
जो मनुष्य किसी भी जीव के प्राती अमंगल भावना नही रखता, जो मनुष्य सभी की ओर सम्यक् दॄष्टीसे देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है । श्रीमदभागवत 9|15|15
अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथौ उभावपि ।
बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरूषो भवान ॥
एक सन्यासी राजा से कहता है, “हे राजन्, मै और आप दोनों लोकनाथ है ।
अंतर इतना ही है कि मै बहुव्रीह समास हूँ तो आप षष्ठी तत्पुरूष हो !”
यावत् भ्रियेत जठरं तावत् सत्वं हि देहीनाम् ।
अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥
मनुस्मॄती, महाभारत अपने स्वयम के पोषण के लिए जितना धन आवश्यक है उतने पर ही अपना अधिकार है । यदि इससे अधिक पर हमने अपना अधिकार जमाया तो यह सामाजिक अपराध है तथा हम दण्ड के पात्र है ।
विपदी धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रम: ।
यशसि चाभिरूचिव्र्यसनं श्रुतौ प्रकॄतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥
आपात्काल मे धेेैर्य , अभ्युदय मे क्षमा , सदन मे वाक्पटुता , युद्ध के समय बहादुरी , यशमे अभिरूचि , ज्ञान का व्यसन ये सब चीजे महापुरूषों मे नैसर्गिक रूप से पायी जाती हैं ।
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः । शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
जो मनुश्य (कुछ काम किए बिना) बैठता है, उसका भाग्य भी बैठता है । जो खडा रहता है, उसका भाग्य भी खडा रहता है । जो सोता है उसका भाग्य भी सोता है और जो चलने लगता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है । अर्थात कर्मसेही भाग्य बदलता है ।(ऐतरेय ब्राह्मण, 3.3)
श्रमेण दु:खं यत्किन्चिकार्यकालेनुभूयते । कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रामोद ॥
काम करते समय होनेवाले कष्ट के कारण थोडा दु:ख तो होता है । परन्तु भविष्य में उस काम का स्मरण हुवा तो निश्चित ही आनंद होता है ।
स्वभावं न जहात्येव साधुरापद्गतोऽपि सन् ।
कर्पूर: पावकस्पॄष्ट: सौरभं लभतेतराम् ॥
अच्छी व्यक्ति आपत्काल में भी अपना स्वभाव नहीं छोडती है , कर्पूर अग्निके स्पर्श से अधिक खुशबू निर्माण करता है।
खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशी ।
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा: ॥
जब तक चन्द्रमा उगता नही, जुगनु (भी) चमकता है । परन्तु जब सुरज उगता है तब जुगनु भी नही होता तथा चन्द्रमा भी नही (दोनो सुरज के सामने फीके पडते है |
वनेऽपि सिंहा मॄगमांसभक्षिणो बुभुक्षिता नैव तॄणं चरन्ति ।
एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति ॥
जंगल मे मांस खानेवाले शेर भूक लगने पर भी जिस तरह घास नही खाते, उस तरह उच्च कुल मे जन्मे हुए व्यक्ति (सुसंस्कारित व्यक्ति) संकट काल मे भी नीच काम नही करते ।
यत्र नार्य: तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।
यत्र एता: तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्र अफला: क्रिया: ॥
जहां स्त्रीयोंको मान दिया जाता है तथा उनकी पूजा होती है वहां देवताओंका निवास रहता है ।
परन्तू जहां स्त्रीयों की निंदा होती है तथा उनका सम्मान नही किया जाता वहां कोइ भी कार्य सफल नही होता ।
न अन्नोदकसमं दानं न तिथिद्र्वादशीसमा ।
न गायत्रया: परो मन्त्रो न मातु: परदैवतम् ॥
अन्नदान जैसे दान नही है । द्वादशी जैसे पवित्र तिथी नही है । गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है तथा माता सब देवताओं से भी श्रेष्ठ है ।
अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्य: कुशलो नर: ।
सर्वत: सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पद: ॥
भवरा जैसे छोटे बडे सभी फूलोमेसे केवल मधु इक{ा करता है उसी तरह चतुर मनुष्यने शास्त्रोमेसे केवल उनका सार लेना चाहिए ।
बहुत ही सार्थक श्लोक.
धन्यवाद.
Good and helpful
अति उत्तम नीति श्लोक
Amazing this is my school presentation
Thankyou
उत्तमम नीती श्लोका:
उत्तम पथिकाः श्लोकाः
ati sundar, bahot acha collection hai … dhanyavad
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OK
अत्यूत्तमाः श्लोकाः
Outstanding collection