सनातन परंपरा में बलिदान का दर्शन:
भारत सदा से एक वीरता प्रधान देश रहा है | सिकंदर की सेना के रक्त से झेलम के पानी को लाल करने वाली हिदू राजपुताना की वीरता के बारे में यूनान के इतिहासकारों ने लिखा की फारस और अरब को अपने अश्व टापों से रौंदती हुई सिकंदर सेना को जब युद्ध मे राजपूतों से भिड़ना पड़ा ….तो उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था की युद्ध इस वीरता और नृशंस्ता के स्तर पर लड़ा जाता है |
उसके बाद इतिहास में ४०० सालों तक हर यूनानी ने हिन्दुकुश पर भारत से संधि कर के ही अपनी प्राण रक्षा किया | यूनान के इतिहास में “संड्रोकोटस” चंद्रगुप्तस ही तो हैं|
गीता में बलिदान का धर्म:
वास्तव में यह बलिदान और वीरता राजपूतों में धरती का टुकड़ा जीतने के लिए नहीं अपितु “धर्म रक्षा” और गीता के;
“हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥२- ३७॥”
के कारण थी | राजपूतों का एक वर्ग “शिशौदिया” (जिसने शीश भी दे दिया) यानि धर्म रक्षा में शीश भी समर्पित कर देने वाला भी इसी बलिदान की परंपरा को आगे बढ़ाता है |
इस महान कार्य में हिन्दू स्त्री भी पीछे नहीं थी, जौहर इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, इस कारण जहाँ भी बलिदान की बात आती थी इसे मजबूरी नहीं अपना सम्मान समझ कर समाज में लोग स्वयं स्वीकार करते थे |
सती क्या है ??
भारत में अग्नि को सबसे पवित्र माना गया है | कोई भी पवित्र कार्य अग्नि को साक्षी मानकर ही किया जाता है | अग्नि को तप का एक स्वरुप भी माना जाता है और यज्ञ, विवाह से लेकर शव दाह की प्रक्रिया तक सब कुछ अग्नि से ही पवित्र होने का विधान है |
प्रमाण निम्नलिखित है –
अग्नि के आवाहन का मन्त्र :
ओम अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् |
युयोधस्म्ज्जुहराण मेनो भुइष्ठान ते नमः उक्तिं विधेम ||
( यजुर्वेद ५/३६ ; ४०/१६ ; ७/४३ )
O Agni (fire) ! The effulgent power of the universe ! Lead us all by the path of correctness . O Deva ! You and only you know what is right and good . Help us in fighting out the wicked , evil and sinful deeds out of ourselves . We utter these words with our utmost humbleness , again and again.
भारत में वीरता समाज की परंपरा:
भारत एक विजेता प्रधान देश रहा है यानि निर्भय समाज और इस समाज में किसी को मारना एक ओर जहाँ पाप था वहीँ स्वयं मृत्यु का वरण करना एक अप्रतिम सम्मान की बात थी | प्राचीन काल में योगी अपने शरीर को अग्नि के आवाहन से और तप के बल से वनों में मनुष्य पापों से मुक्ति के लिए मृत्यु का वरण कर लेते थे | गोरख साहित्य में हठ योग की साधना में ऐसी यौगिक क्रियाएं आम बात थीं | यह परंपरा भारत में सिद्ध संतों की सनातन से रही है |
सती शब्द संस्कृत के सत शब्द से पैदा हुआ है | जिसका अर्थ है “पवित्र” | सती शब्द भी सत्यीकरण यानि पवित्रीकरण से ही निकला है और पवित्र करने की प्रक्रिया अग्नि की है | इस शब्द विशेष का किसी विधवा के पति के शव के साथ दाह से कोई संबंध नहीं था |
गुप्तकाल में 510 ई. के दौरान सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य देखा गया है। इस अभिलेख में महाराजा भानुगुप्त का वर्णन किया गया है जिनके साथ युद्ध में गोपराज भी मौजूद थे। युद्ध के दौरान गोपराज वीर गति को प्राप्त हुए जिसके बाद उनकी पत्नी ने सती होकर अपने प्राण त्याग दिए थे। परन्तु यह किसी दबाव में नहीं अपितु स्वेच्छा का विषय था |
सती जबरन दाह की प्रक्रिया नहीं थी:
सती शब्द संस्कृत के “सत” शब्द से पैदा हुआ है | जिसका अर्थ है पवित्र | सती प्रथा का नाम माता सती के द्वारा योगाग्नि में स्वयं को भस्म कर पार्वती के रूप में प्राकट्य की घटना से जुडा हुआ है | सबसे पहली बात ये की सती ने योगाग्नि में आत्माहुति किसी के दबाव में नहीं दिया था… अपितु स्वेच्छा से दिया था | भला महान राजा दक्ष की कन्या पर कोई दबाव बना सकता था क्या ?
इस तरह सती एक ऐसे ऐतिहासिक नारी के रूप में प्रसिद्द हुईं की शंकर जी को जन्म जन्म तक पति रूप में पाने की कामना में इतना बड़ा त्याग किया सती ने | और यदि सतीत्व एक जबरन दाह की सामाजिक प्रक्रिया होती तो दशरथ की 4 रानियों का दाह क्यों नहीं हुआ ? लक्ष्मी बाई ने सती क्यों नहीं किया ?
वास्तव में सतीत्व अपनी स्वेच्छा से अग्नि में दाह से स्वयं को मुक्त कर लेने की प्रक्रिया थी जिस आत्माहुति को लोग एक पवित्र कार्य मानकर “सती माता” नाम दे देते थे और समाज में ऐसा करने का कोई भी दबाव नहीं था | जैसे कोई संन्यास धारण करता है तो सभी गृहस्थ उसका सम्मान तो करते हैं पर स्वयं संन्यास धारण नहीं करते |
वेदों में सतीप्रथा का विरोध:
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि |
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ ||
(ऋग्वेद 10.18.8)
(चिता पर पति शरीर को लेकर बैठी पत्नी से) उठ ! तुझे संसार वापस बुला रहा है, तू किसका पक्ष ले रही है जो मृत शरीर है | जिसने इस संसार में तेरा हाथ पकड़ा था और आकर्षित करता था वो मुक्त होकर चला गया |
पूरे रामायण में कहीं भी अग्नि दाह जैसे किसी भी सामाजिक क्रिया की घटना का जिक्र नहीं है | याज्ञवल्क्य और नारद सूक्त जैसे प्रमाणिक ग्रंथों में भी कहीं अग्नि दाह जैसे किसी भी सामाजिक क्रिया की घटना का जिक्र नहीं है |
पराशरस्मृति में में सती प्रथा:
यदि कोई भी स्त्री पति के मृत्यु के बाद ब्रम्हचर्य का जीवन जीती है तो निश्चय ही उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी | इस प्रकार पाराशर स्मृति में भी अग्नि दाह जैसे किसी भी सामाजिक क्रिया की घटना का जिक्र नहीं है | कालांतर में यदा कदा कोई धर्म परायण स्त्री “सहमरण” या “सहगमन” के लिए सती करती रहीं हैं तो ये मात्र भावना अतिरेक में और सती माता जैसे पूज्य होने के सम्मान में | इसी वजह से प्रकांड विद्वान् बाणभट्ट ने भी इसे सामाजिक गौरव और सम्मान के लिए किया जाने वाला कृत्य कहा |
हर हिन्दू परंपरा का विरोध एक चाल:
सतीप्रथा को हिन्दू धर्म से जोड़कर कुरीति के रूप में प्रचारित करना वास्तव में हिन्दू धर्म को कमजोर करने की ईसाईयों और अधर्मी लोगों की एक चाल थी | कुल मिलाकर इसाई उपनिवेशवाद का प्रारंभ ही इसाई धर्म के प्रचार के लिए था व्यापार तो उनका नंबर दो पर था | अँगरेज भारत मे व्यापार के लिए 18 वीं शताब्दी में आये परन्तु इसाइयत के प्रचार वाले संत थॉमस का केरल के तट पर आगमन ईशा के मृत्यु के मात्र 52 वर्ष के बाद ही आ गये थे|
हिन्दू धर्म की कमियों को गिना कर इसका मनोबल गिराना, इसाई धर्मांतरण का प्राथमिक हथियार था | आज हिन्दू संस्कृति विशेषकर युवाओं को परम्पराओं का और झूठे इतिहास का विभेद पता होना चाहिए तभी समाज में संगरोध के साथ हमारा अस्तित्व बचा रहेगा और हम झूठे आरोपों का जवाब भी दे पायेंगे |
Shradha ur bhakti jase sabd manusy dura manushy ko lutane ke liye banaya gaya ak shabd ha. Jab kissi par shradh rakhne ki bat ki jati ha to iska matlb hota ha ki ap apni budhi ka prayog mat kijiyye aur mai jo kugh kah raha hu use man lijia kahne ka matlab yah ha ki vivek ki koi awasyakta nahi ha.rudhiwadi log shradh aur bhakti rakhte ha lekin vagyanik soch wale budhi ka prayog karte ha.