4 अक्टूबर 1963 को बख्शी के स्थान पर ख्वाजा शमशुद्दीन को कश्मीर का नया मुख्यमंत्री चुना गया। शमशुद्दीन को अपना पद संभाले अभी लगभग 2 ही महीने गुजरे थे कि, कश्मीर में एक ऐसी घटना हो गई जिससे कश्मीर ही नहीं पूरे हिन्दुस्तान के साथ-साथ पाकिस्तान भी दहल गया था।
इस घटना का बहुत व्यापक असर हुआ था ऐसे में हमारे लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि आखिर वह क्या घटना थी, जिसकी धमक दिल्ली से कराची तक पहुँच गई थी।
उस ऐतिहासिक घटना के बारे में जानने से पहले आपको ‘मू-ए-मुक़द्दस को जानना होगा।
दरअसल, मू-ए-मुक़द्दस मुस्लिम समुदाय के लिए बहुत पवित्र माना जाता है। हज़रत मोहम्मद साहब की निशानी के तौर पर उनके दाढ़ी या सिर के बाल को ही ‘मू-ए- मुक़द्दस’ के नाम से जाना जाता है।
मोहम्मद साहब के इसी पवित्र अवशेष को साल 1635 में सईद अब्दुल्ला मदीना से भारत लेकर आये थे, जो पैगंबर मोहम्मद साहब के वंशजों में से एक थे। उन्होंने इस अवशेष को कनार्टक के बीजापुर इलाके की एक मस्जिद में रखवा दिया। बाद में यह कश्मीर के एक व्यापारी नूरुद्दीन के हाथ लगा। यह वही दौर था जब मुग़ल सल्तनत औरंगज़ेब के हाथों में थी।
जब इसकी खबर बादशाह औरंगज़ेब को लगी। तो उसने उस अवशेष को अजमेर की मशहूर दरगाह ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती साहब के खानकाह में रखवा दिया। इसके बाद 1700 ई। में उस पवित्र अवशेष को कश्मीर की मशहूर दरगाह हज़रतबल के खादिमों के सुपुर्द कर दिया।
तब से वो उसी दरगाह में संरक्षकों के बीच महफूज़ रखा रहा। समय-समय पर श्रद्धालुओं के बीच उस पवित्र अवशेष का दर्शन भी कराया जाता रहा।
27 दिसंबर 1963 को मोहम्मद साहब के इसी अवशेष की चोरी हो जाती है। रिपोर्टों की मानें तो यह चोरी लगभग 2 बजे के आसपास हुई थी। जल्द ही इसके गायब होने की खबर पूरे कश्मीर में फ़ैल गई। कश्मीर के लिए यह धार्मिक आस्था से जुड़ी यह एक बड़ी घटना थी।
इसके अगले दिन 28 दिसंबर को पूरा कश्मीर सुलग उठा था। जगह-जगह से लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया। देखते ही देखते 50 हज़ार से अधिक संख्या में लोग दरगाह के पास इकठ्ठा हो गए।
श्रद्धालु काले कपड़े व झंडे लेकर विरोध कर रहे थे। उस वक़्त बख्शी नेहरु से मिलने दिल्ली गए हुए थे, परन्तु मुख्यमंत्री शमशुद्दीन जम्मू में ही थे। जब उन तक खबर पहुंची तो वे अपने काफिले के साथ रवाना हो गए। उनको रास्ते में काफी विरोध का सामना करना पड़ा।
बहरहाल, वो किसी तरह घटना स्थान पर पहुंचने में कामयाब रहते हैं। वहां वे हज़रत बल की दरगाह पर दुआ करते हैं। इसी के साथ ही शमशुद्दीन उन चोरों को पकड़वाने वाले को 1 लाख रूपये का ईनाम व जिंदगी भर 500 रूपये मासिक पेंशन भी देने का ऐलान करते हैं।
उनकी विनती पर दिल्ली से दो सीबीआई ऑफिसर को कश्मीर भेजा जाता है। घटना तेजी से तूल पकड़ रहा था। पूरा हिंदुस्तान उस अवशेष के मिलने की दुआ व प्रार्थना करने लगा।
उसी सम्मेलन के भाषणों के बाद माहौल और ख़राब हो गया। उस मंच से कुछ नेताओं ने आग में घी डालने का काम किया था। इसके बाद जगह-जगह तोड़ फोड़ शुरू हो गई। गाड़ियों को जलाया जाने लगा। सिनेमाघरों व पुलिस स्टेशनों को भी आग के हवाले कर दिया गया था। बात बनने की जगह और ख़राब हो गई थी स्थिति को देखते हुए डिप्टी कमिश्नर ने कर्फ्यू लगाने का फैसला किया। अगले 14 घंटों के लिए कर्फ्यू लगा रहा। उस दौरान कांग्रेसी नेता शेख़ राशिद व मोहम्मद शफी कुरैशी समेत अन्य कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था।
मौके की नजाकत को समझते हुए पाकिस्तानी मिडिया ने कुछ इस तरह इस घटना को कवर किया कि पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान में भी अफरा तफरी का माहौल बरपा हो गया। इस चोरी ने हिन्दुस्तान के साथ ही पाकिस्तान को भी हिला कर रख दिया था।
पाकिस्तान में भी कई हिंसक ख़बरें आने लगीं। जिन्ना की कब्र तक जुलूसों का एक बड़ा समूह पहुँच चुका था। वहां सैकड़ों लोग मारे जा चुके थे। कई लोगों को मजबूरन पलायन करना पड़ा था। वहां की मीडिया व राजनेताओं ने इसे कश्मीरी मुसलमानों के खिलाफ साजिश बताया। इससे हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दहशत फ़ैल चुकी थी।
आगे, कश्मीर के सदर-ए-रियासत डा0 कर्ण सिंह नेहरू व नंदा से मिलने दिल्ली पहुंचे। नेहरु ने 30 दिसंबर को सीबीआई प्रमुख बी।एन। मलिक को श्रीनगर भेजा। वहां उन्होंने घटना का जायजा लिया और जल्द करवाई होने का भरोसा दिलाया।
हालात इतने नाजुक हो चुके थे कि, नेहरु को उसी दिन रेडियो प्रसारण के जरिये एक पैगाम देना पड़ा। उन्होंने कश्मीर के दर्द को साझा करते हुए कहा कि “अपराधियों को पकड़ने के लिए शांति बनाये रखना ज़रूरी है, नहीं तो उससे अपराधियों को बल मिलेगा।
मुस्लिम समुदाय के इस दुःख में हिन्दुओं के साथ सिखों की एक बड़ी तादाद साथ आ चुकी थी। जगह-जगह लोगों के लिए भोजन व खाने-पीने का इंतेज़ाम किया जाने लगा। मस्जिदों के साथ ही मंदिरों व गुरुद्वारों में भी अवशेष मिलने की प्रार्थना होने लगी थी।
1 जनवरी 1964 को नेहरु ने अचानक अपने एक मंत्री को कश्मीर भेज दिया था। वो कोई और नहीं बल्कि ‘कामराज प्लान’ के तहत शिकार हुए उनके खास अहम मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी थे। उन्होंने दरगाह की जियारत करते हुए अवशेष मिलने की दुआ मांगी।
3 जनवरी को पवित्र अवशेष के मिलने की एक खुसूसी दुआएं की जाती हैं। 4 जनवरी 1964 को लोगों की दुआओं का असर होता है। दोपहर को शमशुद्दीन कश्मीर रेडियो से संबोधित करते हुए कहते हैं कि “वास्तव में आज हमारे लिए ईद का दिन है। यह जानकर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि पैगंबर मोहम्मद साहब के अवशेष मिल गए हैं। मैं इसके लिए आपको व कश्मीर के लोगों को मुबारकबाद देता हूँ।
गृह सचिव ने बताया कि अवशेष किसने चुराए अभी इस बात की जानकारी नहीं हो पाई है, मगर सीबीआई इसकी जाँच कर रही
कश्मीर की फिजाओं में फिर से खुशनुमा माहौल हो गया था। सीबीआई प्रमुख ने जब इस खुशखबरी को फोन के जरिये नेहरु को बताया तो उन्होंने उनसे कहा कि “तुमने कश्मीर को भारत के लिए बचाया है”।
दिलचस्प यह है कि मोहम्मद साहब की निशानी तो मिल चुकी थी, मगर अब लोगों में ये शक पैदा हो गया कि यह अवशेष असली है या नहीं। इस मुद्दे ने फिर से हवा पकड़ना शुरू कर दिया। हालात फिर से ख़राब होने लगे थे।
ऐसे में लाल बहादुर शास्त्री की मौजूदगी में कश्मीर के सूफी मीराक शाह कशानी को बुलाया गया। सिर्फ यही वो शख्सियत थी, जो इस मु-ए-मुक़द्दस को पहचानता था।
उनको अवशेष दिखाया गया। उन्होंने अपनी आध्यात्मिक ज्ञान से उसका दीदार किया। उस वक़्त सभी की सांसे थम सी गई थी। इस सूफी के एक फैसले से जश्न और जहन्नुम का आगाज होना था, नेहरु व शास्त्री के लिए भी ये एक कड़े इम्तिहान जैसा था। उस अंतिम पलों को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।
बहरहाल, उन्होंने इसकी असली होने की तस्दीक की। बस फिर क्या था पूरा कश्मीर जश्न में डूब गया।