ईश्वर
यस्मात्क्षरमतीतोऽतोहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥
मैं (ईश्वर) नाशवंत जड समुदाय (क्षेत्र) से सर्वथा भिन्न हूँ, और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ; इस लिए लोगों में तथा वेदों में पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ ।
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥
समग्र ऐश्वर्य, शौर्य, यश, श्री, ज्ञान, और वैराग्य इन छे गुणों से “भग” बनता है । (“भगवान” शब्द की व्युत्पत्ति)
धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं प्रथमं श्रुतिः ।
द्वितीयं धर्मशास्त्रं तु तृतीयं लोकसङ्ग्रहः ॥
समान धर्मजिज्ञासा होने के तीन प्रमाण हैं; श्रुति, धर्मशास्त्र और लोकसंग्रह ।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ॥
हे अर्जुन ! ईश्वर सब प्राणियों के ह्रदय में विराजमान है । शरीररुप यंत्र पर आरुढ हुए सब प्राणियों को, अपनी माया के ज़रीये (हरेक के कर्मों के मुताबिक) वह घूमाता रहता है ।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ॥
हे अर्जुन ! ईश्वर सब प्राणियों के ह्रदय में विराजमान है । शरीररुप यंत्र पर आरुढ हुए सब प्राणियों को, अपनी माया के ज़रीये (हरेक के कर्मों के मुताबिक) वह घूमाता रहता है ।
अविक्रयं सत्यमनन्तमाद्यं गुहाशयम् निष्फलमप्रतर्क्यम् ।
मनोऽग्रयानं वचसा निरुक्तं नमाम्यहं देवदरं वेरण्यं ॥
सर्व विकारों से रहित, सत्य स्वरुप, अनंत, आद्य, सर्वान्तर्यामी, उपाधिरहित, तर्कातीत, मन से भी वर्णनातीत, ऐसे सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम देवता को हम नमस्कार करते हैं ।
वायुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥
सभी वेद वासुदेवपर है, यज्ञ भी वासुदेव की प्राप्ति के लिए हि होते हैं; योग भी वासुदेवपर हि हैं, और सभी कर्म भी वासुदेव की प्राप्ति के हि साधन है ।
उप समीपे यो वासो निजात्मपरमात्मनोः ।
उपवासः स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम् ॥
आत्मा का परमात्मा के पास रहेना, वही उपवास है, और नहीं कि काया का शोषण करना ।
यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दैः यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रैः ।
यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः स देवदेवो ह्रदये ममास्ताम् ॥
सब श्रेष्ठ मुनियों का समूह जिनका स्मरण करते हैं; सब मनुष्य, देव और इन्द्र जिनकी स्तुति करते हैं; जिनके गुण पुराण, वेद और शास्त्र गाते हैं, वैसे हे देवाधिदेव ! मेरे हृदय में आकर बसो ।
स्वयं महेशः श्वशुरो नगेशः सखा धनेश स्तनयो गणेशः ।
तथापि भिक्षाटनमेव शम्भोः बलीयसी केवलमीश्वरेच्छा ॥
स्वयं महेश है, ससुर पर्वतश्रेष्ठ है, कुबेर जैसा धनी उनका मित्र है, और पुत्र गणों का स्वामी है । फिर भी भगवान शंकर को भिक्षा के लिए भटकना पडता है ! सचमुच, ईश्वर की ईच्छा हि बलवान है ।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
(क्षर और अक्षर) इन दोनों से उत्तम पुरुष अन्य हि है, जो तीनों लोक में प्रवेश कर सब का धारण-पोषण करता है; और जो अविनाशी, परमेश्वर या परमात्मा ऐसे नामों से जाना जाता है ।
Sir your Sanskrit is very good
Thanks!
Ab oy gadhe.pagal sasure.