गोविंद के पिता एक रिक्शा चालक थे। बनारस की तंग गलियों में एक छोटे से कमरे में गोविंद का परिवार रहता था, जो बहुत मुश्किल से अपना गुजर-बसर कर पाता था। यह कमरा ऐसी जगह था, जहां फैक्ट्रियों के शोर के कारण पढाई करना तो दूर, आपस मे बात करना ही मुश्किल होता था। घर और बाहर के काम में सभी माता पिता, बहने व गोविंद हाथ बंटाते थे।
पढाई का संघर्ष:
गोविंद ने पढाई से कभी कोई समझौता नहीं किया। अपनी पढाई का खर्चा निकालने के लिए उसने आठवीं क्लास से ही ट्यूशन पढ़ना शुरू कर दिया। शोर से बचने के लिए वो कानों में रुई लगा लेता और अधिक शोर होने पर गणित की पढ़ाई और माहौल शांत होने पर अन्य विषयों की पढ़ाई करता था। रात में बिजली गुल होने पर लालटेन का सहारा लेता था।
स्कूली शिक्षा के दौरान वो टाॅपर रहे। बारहवीं के बाद उसने इंजीनियरिंग करने की सोची परन्तु admission form के 500रु भी नहीं होने के कारण उसने इंजीनियरिंग का विचार त्याग दिया। फिर BHU से ग्रेजुएशन किया क्योंकि वहां की फीस मात्र 10 रु थी।
दिल्ली में कोचिंग के दिन:
गोविंद अपने IAS बनने के सपने के लिए लगातार संघर्ष करता रहे फिर दिल्ली के संस्थान मे चले आए। परन्तु जैसे ऊपर वाला गोविंद की और परीक्षा लेना चाह रहा था। इसी बीच उसके पिता एक दुघर्टना के शिकार हो गए और वे बेरोजगार हो गए। गोविंद की पढ़ाई रुके न इसलिए उसके पिता ने 30,000 रु मे उनकी एक मात्र सम्पत्ति छोटी सी ज़मीन को बेच दिया ताकि गोविंद की कोचिंग पूरी हो सके।
गोविंद ने तो जैसे जिद कर रखी थी कि बनूंगा तो सिर्फ IAS ही। आखिर उसकी मेहनत रंग लाई, मात्र 24 की उम्र मे 48वीं रैंक के साथ गोविंद का Civil services exam में चयन हुआ। उसी दिन से उसकी और उसके परिवार की परिस्थितियां बदल गयी।
गोविन्द जायसवाल के विचार:
गोविंद हमेशा कहते हैं कि “इस दुनिया में कोई भी विषय कठिन नहीं है, बस उसे आत्मसात करने की अपने अंदर दृढ इच्छा शक्ति होनी चाहिए। गोविंद का माध्यम हिंदी था। उसका कहना था कि परीक्षा में विचारों की अभिव्यक्ति जरूरी है। मैं अपने विचार हिंदी में अच्छी तरह से रख पाया और इसी हिंदी ने मुझे सफलता तक पहुंचा दिया।
सार:
सफलता का रास्ता अभावों, कठिनाईयों व संघर्ष से ही गुजरता है। दृढ इच्छा शक्ति ही वो हथियार है, जिससे सफलता को पाया जा सकता है।
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