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- विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहि । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है.
- स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥
अर्थ- किसी भी व्यक्ति का मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता है. चाहे आप उसे कितनी भी सलाह दे दो. ठीक उसी तरह जैसे पानी तभी गर्म होता है, जब उसे उबाला जाता है. लेकिन कुछ देर के बाद वह फिर ठंडा हो जाता है.
- अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ॥
अर्थ- बिना बुलाए स्थानों पर जाना, बिना पूछे बहुत बोलना, विश्वास नहीं करने लायक व्यक्ति/चीजों पर विश्वास करना…. ये सभी मूर्ख और बुरे लोगों के लक्षण हैं.
- ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहि सकता, जिसे चोर ले जा नहि सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहि होता ।
- सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥
सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहि जा सकता; उसका मूल्य नहि हो सकता, और उसका कभी नाश नहि होता ।
- विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।
- रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहि देते ।
- यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः ।
चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता ॥
अर्थ- अच्छे लोगों के मन में जो बात होती है, वे वही वो बोलते हैं और ऐसे लोग जो बोलते हैं, वही करते हैं. सज्जन पुरुषों के मन, वचन और कर्म में एकरूपता होती है.
- नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
विद्या जैसा बंधु नहि, विद्या जैसा मित्र नहि, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहि ।
- षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥
अर्थ- छः अवगुण व्यक्ति के पतन का कारण बनते हैं : नींद, तन्द्रा, डर, गुस्सा, आलस्य और काम को टालने की आदत.
- द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ॥
अर्थ- दो प्रकार के लोग होते हैं, जिनके गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए. पहला, वह व्यक्ति जो अमीर होते हुए दान न करता हो. दूसरा, वह व्यक्ति जो गरीब होते हुए कठिन परिश्रम नहीं करता हो.
- त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सहृज्जनाश्च ।
तमर्थवन्तं पुनराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुष्यस्य बन्धुः ॥
अर्थ- मित्र, बच्चे, पत्नी और सभी सगे-सम्बन्धी उस व्यक्ति को छोड़ देते हैं जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होता है. फिर वही सभी लोग उसी व्यक्ति के पास वापस आ जाते हैं, जब वह व्यक्ति धनवान हो जाता है. धन हीं इस संसार में व्यक्ति का मित्र होता है.
- यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥
अर्थ- वह व्यक्ति जो विभिन्न देशों में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है. उस व्यक्ति की बुद्धि का विस्तार उसी तरह होता है, जैसे तेल का बून्द पानी में गिरने के बाद फैल जाता है.
- परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः ।
अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् ॥
अर्थ- कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे, तो उसे परिवार के सदस्य की तरह महत्व देना चाहिए. और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए, तो उसे महत्व देना बंद कर देना चाहिए. ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुँचाने लगती है. जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है.
- येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
अर्थ- जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म. वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में जानवर की तरह से घूमते रहते हैं.
- अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ॥
अर्थ- निम्न कोटि के लोग केवल धन की इच्छा रखते हैं, उन्हें सम्मान से कोई मतलब नहीं होता है. जबकि एक मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और मान दोनों की इच्छा रखता है. और उत्तम कोटि के लोगों के लिए सम्मान हीं सर्वोपरी होता है. सम्मान, धन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है.
- सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से ? सुख की ईच्छा रखनेवाले ने विद्या की आशा छोडनी चाहिए, और विद्यार्थी ने सुख की ।
- क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥
एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए । क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?
- कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति ।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् ॥
अर्थ- जबतक काम पूरे नहीं होते हैं, तबतक लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं. काम पूरा होने के बाद लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं. ठीक उसी तरह जैसे, नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है.
- मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम् ।
दंपत्यो कलहं नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागतः ॥
अर्थ- जहाँ मूर्ख को सम्मान नहीं मिलता हो, जहाँ अनाज अच्छे तरीके से रखा जाता हो और जहाँ पति-पत्नी के बीच में लड़ाई नहीं होती हो. वहाँ लक्ष्मी खुद आ जाती है.
- न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥
अर्थ- न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न इसका भाइयों के बीच बंटवारा होता है, और न हीं सम्भालना कोई भार है. इसलिए खर्च करने से बढ़ने वाला विद्या रूपी धन, सभी धनों से श्रेष्ठ है.
- शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः ।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा ॥
अर्थ- सैकड़ों में कोई एक शूर-वीर होता है, हजारों में कोई एक विद्वान होता है, दस हजार में कोई एक वक्ता होता है और दानी लाखों में कोई विरला हीं होता है.
- दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले ।
श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥
सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।
- विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
अर्थ- विद्या से विनय – विनय से पात्रता / योग्यता – योग्यता से धन – धन से धर्म एवं धर्म के पालन से सुख की प्राप्ति होती है |
- विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
अर्थ- विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है. क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान जहाँ-जहाँ भी जाता है….. वह हर जगह सम्मान पाता है.
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