स्वभाव पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlokas on Human Nature with Meaning

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स्वभाव पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlokas on Human Nature with Meaning

न तेजस्तेजस्वी प्रसृतमपरेषां प्रसहते ।
स तस्य स्वो भावः प्रकृति नियतत्वादकृतकः

तेजस्वी इन्सान दूसरे के तेज को सहन नहीं कर सकता, क्यों कि वह उसका जन्मजात, प्रकृति ने तय किया हुआ स्वभाव है ।

स्वभावो न उपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥

उपदेश देकर स्वभाव बदला नहीं जाता । पानी को खूब गर्म करने के बावजुद, वह फिर से (अपने स्वभावानुसार) शीत हो हि जाता है ।

व्याघ्रः सेवति काननं च गहनं सिंहो गुहां सेवते
हंसः सेवति पद्मिनीं कुसुमितां गृधः श्मशानस्थलीम् ।
साधुः सेवति साधुमेव सततं नीचोऽपि नीचं जनम्
या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ॥

शेर गहरे जंगल में, और सिंह गुफा में रहता है; हंस विकसित कमलिनी के पास रहेना पसंद करता है, गीध को स्मशान अच्छा लगता है । वैसे हि साधु, साधु की और नीच पुरुष नीच की सोबत करता है; याने कि जन्मजात स्वभाव किसी से छूटता नहीं है ।

निम्नोन्नतं वक्ष्यति को जलानाम् विचित्रभावं मृगपक्षिणां च ।
माधुर्यमिक्षौ कटुतां च निम्बे स्वभावतः सर्वमिदं हि सिद्धम् ॥

पानी को ऊँचाई और गहराई किसने दिखायी ? पशु – पँछीयों में रही हुई विचित्रता उन्हें किसने सीखायी ? गन्ने में मधुरता और नीम में कटुता कौन लाया ? ये सब स्वभाव से हि सिद्ध होता है ।

वचो हि सत्यं परमं विभूषणम् यथांगनायाः कृशता कटौ तथा ।
द्विजस्य विद्यैव पुनस्तथा क्षमा शीलं हि सर्वस्य नरस्य भूषणम् ॥

जैसे पतली कमर स्त्री का और विद्या ब्राह्मण का भूषण है, वैसे सत्य और क्षमा परम् विभूषण हैं । पर शील तो शील तो सब मनुष्यों का भूषण है ।

हेलया राजहंसेन यत्कृतं कलकूजितम् ।
न तद् वर्षशतेनापि जानात्याशिक्षितुं बकः ॥

राजहंस सहज जो नाजुक कलरव करता है, वैसा कलरव सौ साल तक प्रयत्न करनेवाला बगुला नहीं कर सकता ।

शीलं रक्षतु मेघावी प्राप्तुमिच्छुः सुखत्रयम् ।
प्रशंसां वित्तलाभं च प्रेत्य स्वर्गे च मोदनम् ॥

प्रशंसा, वित्तलाभ और स्वर्ग का आनंद – ये तीन सुख पाने की इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान इन्सान ने शील का रक्षण करना चाहिए

वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्वित्तमायाति याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥

चारित्र्य का रक्षण करना चाहिए । धन तो आता है और जाता है । वित्त से क्षीण होनेवाला क्षीण नहीं है, पर शील से क्षीण होनेवाला नष्ट होता है ।

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा ।
अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतद्विदुर्बुधाः ॥

कर्म से, मन से, और वचन से सब प्राणियों का अद्रोह, अनुराग (प्रेम) और दान – इन्हें हि बुद्धिमान लोग शील कहते हैं ।

परोपदेशकुशलाः दृश्यन्ते बहवो जनाः ।
स्वभावमतिवर्तन्तः सहस्रेषु अपि दुर्लभाः ॥

दूसरों को उपदेश करने में अनेक लोग कुशल होते हैं, पर उसके मुताबिक वर्तन करनेवाले हज़ारों में एखाद भी दुर्लभ होता है ।

प्रकृत्यैव विभिद्यन्ते गुणा एकस्य वस्तुनः ।
वृन्ताकः श्लेष्मदः कस्मै कस्मैचित् वातरोग कृत् ॥

प्रकृति ने एक हि चीज़ के अलग अलग गुण रखे हैं । बैंगन एक को कफ उत्पन्न करनेवाला, तो दूसरे को वायु करनेवाला बनता है ।

किं कुलेन विशालेन शीलमेवात्र कारणम् ।
कृमयः किं न जायन्ते कुसुमेषु सुगन्धिषु ॥

विशाल या महान कुल से क्या हुआ ? यहाँ तो शील हि कारण है । क्या सुगंधी फूलों में कीडे नहीं जन्मते ?

नैर्मल्यं वपुषः तवास्ति वसतिः पद्माकरे जायते
मन्दं याहि मनोरमां वद गिरं मौनं च सम्पादय ।
धन्यस्त्वं बक राजहंसपदवीं प्राप्नोषि किं तै र्गुणैः
नीरक्षीरविभागकर्मनिपुणा शक्तिः कथं लभ्यते ॥

तेरा शरीर निर्मल है, तू कमल के समूह में रहता है, तू मंद गति से चलता है, मधुर वाणी बोलता है, और मौन रखता है । हे बगुले ! तू धन्य है । तूने राजहंस की पदवी तो प्राप्त कर ली है, पर क्या केवल इन गुणों से तू पानी और दूध को भिन्न करने की निपुण शक्ति प्राप्त कर सकता है ?

काकस्य गात्रं यदि काञ्चनस्य माविक्यरत्नं यदि चञ्चुदेशे ।
एकैकपक्षे ग्रथितं मणीनाम् तथापि काको न तु राजहंसः ॥

कौए के अवयव सोने के हो, उनकी चौंच में माणेक हो, और हर पँख मणि से जडी हुई हो, फिर भी कौआ राजहंस नहीं बन सकता ।

नलिकागतमपि कुटिलं न भवति सरलं शुनः पृच्छम् ।
तद्वत् खलजनहृदयं बोधितमपि नैव याति माधुर्यम् ॥

नली में रखी हुई कूत्ते की पूंछ सीधी नहीं हो जाती; ठीक उसी तरह बोध देने से दृष्ट का हृदय मधुर नहीं बन जाता ।

इन्दुं निन्दति तस्करो गृहपतिं जारो सुशीलं खलः
साध्वीमप्यसती कुलीनमकुलो जह्यात् जरन्तं युवा ।
विद्यावन्तमनक्षरो धनपतिं नीचश्च रूपोज्ज्वलम्
वैरूप्येण हतः प्रबुद्धमबुधो कृष्टं निकृष्टो जनः ॥

चोर चंद्र की निंदा करता है, व्याभिचारी गृहपति की, दृष्ट सुशील की, असती स्त्री साध्वी की, और अकुलीन कुलीन की निंदा करते हैं । युवान वृद्ध का त्याग करता है; अनपढ विद्वान की, नीच धनवान की, कुरुप सुरुप की, अज्ञानी ज्ञानी की, और नीच मनुष्य अच्छे मनुष्य की निंदा करते हैं ।

काके शौचं द्यूतकरे च सत्यम्सर्पि क्षान्तिः स्त्रीषु कामोपशान्तिः ।
क्लीबे धैर्यं मद्यपे तत्त्वचिन्ता राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ॥

कौए में पवित्रता, जुआरी में स्त्य, सर्प में क्षमा, स्त्री में काम-शांति, डरपोक में धैर्य, दारु पीनेवाले में तत्त्वचिंतन, और राजा में मित्रता हो, ऐसा कभी सुना या देखा है ?

मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्याः निर्धनानां महाधनाः ।
व्रतिनः पापशीलानामसतीनां कुलस्त्रियः ॥

मूर्ख लोग पंडितों का, निर्धन धनिकों का, पापी लोग व्रत करनेवालों का, और असती स्त्रीयाँ कुलवान स्त्रीयों का द्वेष करते हैं ।

काकः पद्मवने रतिं न कुरुते हंसो न कूपोदके
मूर्खः पण्डितसंगमे न रमते दासो न सिंहासने ।
कुस्त्री सज्जनसंगमे न रमते नीचं जनं सेवते
या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ॥

कौआ पद्मवन पर प्रेम नहीं रखता, हंस कूए के पानी में, और मूर्ख पंडित के समागम में आनंद पाता नहीं है । वैसे हि सेवक सिंहासन में, और बूरी स्त्री सज्जन समागम में आनंद पाते नहीं, और नीच को भजते हैं । जो जिसका स्वभाव हो, वह उससे छोडा नहीं जाता ।

न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणम्न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मनः ।
स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ॥

धर्मशास्त्र न पढना या वेदाध्ययन न करना, यह दृष्ट का दुरात्मा होने का कारण नहीं; यहाँ तो स्वभाव हि बलवान है, जैसे कि गाय का दूध स्वभाव से हि मधुर होता है ।

पक्षिणां काकश्चाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां कोपी चाण्डालः सर्वेषां चैव निन्दकः।।

पक्षियों कौआ, पुशुओं में कुत्ता, मुनियों में क्रोधी तथा सबकी निन्दा करनेवाला मनुष्यों में चाण्डाल माना जाता है।

यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः ।
श्वा यदि क्रियते राजा स किं नाश्नात्युपानहम् ॥

जिसका जो स्वभाव होता है वह कभी टाला नहीं जा सकता । जो कूत्ते को राजा बनाया जाय तो क्या वह जूता नहीं खायेगा ?


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Shweta Pratap

I am a defense geek

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