आज मोहे रघुवर की सुधि आई: श्रद्धांजलि शारदा सिन्हा जी

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आज मोहे रघुवर की सुधि आई: श्रद्धांजलि शारदा सिन्हा जी

स्वर कोकिला शारदा सिन्हा जी से मेरा प्रथम परिचय छठ गीतों के माध्यम से नहीं हुआ था। लेकिन रामभक्ति की अपनी यात्रा में मेरे सबसे प्रिय भजनों में शामिल “आज मोहे रघुबर की सुधि आई” के द्वारा मेरा प्रथम परिचय शारदा सिन्हा के गायन से हुआ। सहस्रों बार इस भजन को सुनते इस भजन में वर्णित राम परिवार में विरह के कारुणिक दृश्य मेरे मानस में शारदा सिन्हा जी झंकृत करती करुणामय वाणी के द्वार ही समाये, फिर उसके बाद उनके कुछ वैवाहिक लोक गीतों को सुना जिसमें राम और मां सीता की चर्चा होती थीं। कुल मिलाकर मेरे मन में उनका मंगल स्वर करुणा, प्रेम और विरह का मूर्तिमान रूप बन गया। रामभक्ति के अनूठे रंगों में रंगा हुआ भजन और विवाह गीत और शारदा जी की आवाज़ में इसे सुनना मेरे लिए एक आध्यात्मिक अनुभव बन जाता है।
सिया बिना मेरी सूनी रसोईया लखन बिना ठकुराई,
राम बिना मेरी सूनी अयोध्या धीरज केहि बिधि आई,
आज मोहे रघुबर की सुधि आई…..
भीतर रोवें मात कौशल्या बाहर भरत जी भाई,
दशरथ जी ने प्राण तजे हैं केकई मन पछताई,
आज मोहे रघुबर की सुधि आई….
शारदा सिन्हा जी की मधुर आवाज़, उनकी सादगी, बड़ी गोल बिंदी, मांग में घघोट कर लगाया गया ललका सिन्दूर और साड़ी में बैठ गाती हुई शारदा सिन्हा जी का भारतीय संस्कृति के प्रति गहरा लगाव उन्हें सिर्फ़ एक गायिका नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर की साक्षात शारदा का स्वरुप देता है।
उनकी गायकी में मुझे हिंदी साहित्य की महादेवी वर्मा की कविता-सी कोमलता, सादगी, और गहराई नज़र आती है। जिस तरह महादेवी जी का लेखन उनकी आत्मा की गूंज है, उसी तरह शारदा सिन्हा की आवाज़ में भारतीय लोक-संस्कृति की आत्मा बोलती है। उनकी आवाज़ सुनते ही एक शुद्ध और सात्विक भाव जाग्रत हो जाता है। उनकी गायकी में ऐसी सादगी और मधुरता है जो हृदय को भीतर तक छू जाती है।
शारदा सिन्हा जी का जीवन भी उनकी गायकी की तरह सादगी से भरा रहा। उनकी पहचान उनकी संस्कृति से थी – बिंदी, सिंदूर और साड़ी, एक परंपरागत भारतीय नारी का प्रतिरूप। पद्म भूषण से सम्मानित होने के बावजूद, वे सदैव एक साधारण जीवन जीती रहीं। उन्होंने अपने जीवन में लोक गीतों को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया, लेकिन कभी अपने संस्कारों को पीछे नहीं छोड़ा। गायन का व्यवसायीकरण नहीं किया।
उनका योगदान केवल संगीत तक सीमित नहीं था, बल्कि वे अपने गीतों के माध्यम से बिहार और उत्तर भारत की संस्कृति, भाषा और परंपराओं को जीवित रखने का कार्य भी कर रही थीं। उनके गीतों में नारी की भावना, उसकी संघर्षमयी यात्रा और उसकी आस्था की झलक मिलती है। चाहे छठ महापर्व के गीत हों या उनके भक्ति गीत, उन्होंने हर जगह लोक-संस्कृति का मान बढ़ाया।
शारदा सिन्हा जी का जाना न केवल एक संगीत युग का अंत है, बल्कि यह लोक-संस्कृति के उस अमूल्य खजाने का बिछोह है जिसे उन्होंने आजीवन संजोया। उनकी विरासत हमारे साथ रहेगी, उनकी आवाज़ हमारी परंपराओं में गूँजती रहेगी, और मुझे “आज मोहे रघुबर की सुधि आई” जैसा भजन सदैव उनकी याद दिलाता रहेगा। उनकी यह सरलता, संजीदगी और प्रेमपूर्ण गायकी हमें सदा उनकी अनुपस्थिति में भी उनके पास ही महसूस करवाएगी।
शारदा सिन्हा जी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि – उन्होंने जो धरोहर हमें दी, वह हमारी सांस्कृतिक चेतना को हमेशा प्रज्ज्वलित रखेगी। यह लेख लिखते हुए पार्श्व में “आज मोहे रघुबर की सुधि आई” गीत सुन रहा हूँ।
भजन कृपया जरुर सुनियेगा

लेखक: Shivesh Pratap

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Shivesh Pratap

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