वीटो का क्या अर्थ है?
वीटो (Veto) लैटिन भाषा का शब्द है जिसका मतलब होता है “नकाराधिकार” या ‘मैं अनुमति नहीं देता हूँ‘। प्राचीन रोम में कुछ निर्वाचित अधिकारियों के पास अतिरिक्त शक्ति होती थी, जिसका इस्तेमाल वे रोम सरकार की किसी कार्रवाई को रोकने में करते थे। तब से यह शब्द किसी काम को करने से रोकने की शक्ति के लिये इस्तेमाल होने लगा।
कब शुरू हुआ यह वीटो पॉवर:
आपको बता दें कि फरवरी, 1945 में क्रीमिया, यूक्रेन के शहर याल्टा में एक सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन को याल्टा सम्मेलन या क्रीमिया सम्मेलन के नाम से जाना जाता है। इसी सम्मेलन में तत्कालीन सोवियत संघ के प्रधानमंत्री जोसफ स्टालिन ने वीटो पावर का प्रस्ताव रखा था।
याल्टा सम्मेलन का आयोजन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की योजना बनाने के लिये हुआ था। इसमें ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी.रूजवेल्ट ने हिस्सा लिया।
वैसे 1920 में लीग ऑफ नेशंस की स्थापना के बाद ही वीटो अस्तित्व में आ गया था। उस समय लीग काउंसिल के स्थायी और अस्थायी सदस्यों, दोनों के पास वीटो पावर थी।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 16 फरवरी, 1946 को पहली बार वीटो पावर का इस्तेमाल तत्कालीन सोवियत संघ (USSR) ने किया था। लेबनान और सीरिया से विदेशी सैनिकों की वापसी के प्रस्ताव पर यह वीटो किया गया था।
हालिया चीनी वीटो से भारत को यह स्पष्ट संदेश मिला है कि पाकिस्तान के साथ चीन के संबंध बेहद मज़बूत हैं। यहाँ तक कि उभरती ज़िम्मेदार शक्ति के तौर पर प्रतिष्ठा से उसके लिये राष्ट्रीय हित अधिक मायने रखते हैं।
इसे अमेरिका और इज़राइल के संबंधों के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। सुरक्षा परिषद में जब-जब इज़राइली हितों पर आँच आती है अमेरिका अपने वीटो अधिकार का इस्तेमाल करता है। ठीक ऐसा ही पाकिस्तान के लिये चीन कर रहा है।
चाइना को वीटो पावर कब मिला:
भारत, चीन को कम्युनिस्ट देश के तौर पर मान्यता देने वाला प्रथम देश (पहला गैर कम्युनिस्ट देश) था। उस वक्त सुरक्षा परिषद की चार सीटों पर अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस काबिज थे। जबकि पांचवीं सीट खाली थी जिस पर 24 अक्टूबर 1945 में अविभाजित चीन को शामिल किया गया।
1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के उद्भव के बाद से, चीन का प्रतिनिधित्व च्यांग काई-शेक के रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का शासन करता था, न कि माओं का पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना। संयुक्त राष्ट्र ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को यह सीट देने से इनकार कर दिया था और ताइवान में निर्वासित सरकार को अवसर दिया गया।
बाद में नेहरू के समर्थन के बाद माओं के पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को दे दिया गया।
भारत क्यों परेशान है चीन के वीटो पावर से?
मौजूदा समय में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों- चीन, फ्राँस, रूस, UK और अमेरिका के पास वीटो पावर है। स्थायी सदस्यों के फैसले से अगर कोई सदस्य सहमत नहीं है तो वह वीटो पावर का इस्तेमाल करके उस फैसले को रोक सकता है।
मसूद अज़हर के मामले में यही हो रहा है। सुरक्षा परिषद के चार स्थायी सदस्य उसे ग्लोबल आतंकी घोषित करने के समर्थन में थे, लेकिन चीन उसके विरोध में था और उसने वीटो लगा दिया।
भारत के पास चीन के वीटो का विकल्प:
वर्तमान में वैश्विक व्यवस्था अराजकता का प्रतिनिधित्व करती है और किसी को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने या प्रतिबंधित करने की संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया टूट चुकी है। यह प्रमुख शक्तियों के हितों की संरक्षक भर है।
भारत संयुक्त राष्ट्र से जो अपेक्षा करता है, वह उसे स्वयं करना होगा। सीमा पार से जिस आतंकवाद का वह सामना करता है, उसे खत्म करने के लिये वह जो उपाय कर रहा है, वह सही है, लेकिन इसे लेकर भारत को व्यावहारिक होना होगा।
भारत की बदले की प्रतिक्रिया उपलब्ध विकल्पों का ही परिणाम है, जो पहले देखने को नहीं मिलता था। भारत को यह भी समझना होगा कि चीन कभी भी पाकिस्तान के मामले में असहज महसूस नहीं करता। ऐसे में भारत को अराजकता को पहचानने और खुद के बूते अपने राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है।