डॉ असलम की लेखनी से संग्रहणीय लेख
शिया मुस्लिम सम्प्रदाय पूरी मुस्लिम आबादी का केवल 15 % है । सन् 632 में हजरत मुहम्मद साहब (PBUH) की मृत्यु के पश्चात जिन लोगों ने अपनी भावना से हज़रत अली (A.S) को अपना इमाम (धर्मगुरु) और ख़लीफा (नेता) चुना वो लोग शियाने अली (अली की टोली वाले) कहलाए जो आज शिया (Shia, Shitee ) कहलाते हैं ।
हज़रत अली (A.S) जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई और दामाद (मुहम्मद साहब की इकलौती बेटी फ़ातिमा से निकाह हुआ था ) दोनों थे, इस आधार पर वे हजरत मुहम्मद साहब के असली उत्तराधिकारी थे और उन्हें ही पहला ख़लीफ़ा (राजनैतिक प्रमुख) बनना चाहिए था । लेकिन ऐसा हुआ नहीं और उनको तीन और लोगों के बाद ख़लीफ़ा, यानि प्रधान नेता, बनाया गया। अली और उनके बाद उनके वंशजों को इस्लाम का प्रमुख बनना चाहिए था, ऐसा विशवास रखने वाले “शिया” हैं। सुन्नी मुसलमान मानते हैं कि हज़रत अली सहित पहले चार खलीफ़ा (अबु बक़र, उमर, उस्मान तथा हज़रत अली) थे, जबकि शिया मुसलमानों का मानना है कि पहले तीन खलीफ़ा इस्लाम के गैर-वाजिब प्रधान थे और वे हज़रत अली से ही इमामों की गिनती आरंभ करते हैं और इस गिनती में ख़लीफ़ा शब्द का प्रयोग नहीं करते।
शिया – सुन्नी विवाद की शुरुआत :
जब 632 में हजरत मुहम्मद साहब (PBUH) की मृत्यु के बाद पूरे अरब मे फैला इस्लामिक साम्राज्य के वारिस के लिए मुसलमानों में एकजुटता नहीं रही। कई लोगों के अनुसार हज़रत अली (A.S), जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई थे और दामाद भी (क्योंकि उन्होंने मुहम्मद साहब की संतान फ़ातिमा से शादी की थी) ही मुहम्मद साहब के असली वारिस थे। परन्तु अबु बक़र ( आयशा के पिता और रिश्ते मे मुहम्मद साहब (PBUH) के ससुर ) पहले खलीफा बनाये गये और उनके मरने के बाद उमर को ख़लीफ़ा बनाया गया। इससे हज़रत अली (A.S) के समर्थक लोगों में और भी रोष फैला परन्तु हज़रत अली (A.S) मुसलमानों की भलाई के लिये चुप रहे ।
अबु बक़र के बाद अगले खलीफ़ा उमर बने, उमर के बाद तीसरे खलीफ़ा उस्मान बने। परन्तु इनके समय मे नाराज लोगों ने मिस्र तथा इराक़ व अन्य स्थानो से आकर मदीना में आकर उस्मान के घर को घेर लिया ४० दिन तक उस्मान के घर को घेराव किया अन्त मे उस्मान को मार डाला ।
अब फिर से ख़लीफा का पद खाली था और इस्लामी साम्राज्य बड़ा हो रहा था। मुसलमानो को हज़रत अली (A.S) के अलावा कोई न दिखा पर हज़रत अली (A.S) खलीफ़ा बनने को न माने। अन्त मे हज़रत अली (A.S) को विवश किया गया तो आप ने कहा कि … “मेरे खिलाफत मे इलाही निजाम (ईश्वर शासन) चलेगा”। उन्हें चौथा खलीफ़ा नियुक्त किया गया। अली अपने इन्साफ़ के लिये मशहूर हैं पर लोगो को ये न रास आया ।
सीरिया के गवर्नर “मुआविया” :
सीरिया के गवर्नर “मुआविया” Muawiyah तीसरे खलीफ़ा उस्मान का रिश्तेदार था। और उसे उस्मान के रिश्तेदार सहित अबू-बकर और उमर के समर्थकों का भी समर्थन प्राप्त था । वो सीरिया का गवर्नर भी पिछ्ले खलीफाओं के कारण बना था अब वो अपनी एक बड़ी फौज़ इक्क्ठी की । सारी लड़ाई की जड यहीं से शुरु होती है ….
सीरिया के गवर्नर “मुआविया” ने भी हज़रत अली (A.S) का विरोध किया और उस्मान के कातिलो को सजा दिलवाने के फौज़ इक्क्ठी की। हज़रत अली (A.S) ने कहा उस्मान के कतिलो को सजा जरुर मिलेगी । उसी उस्मान के कतिलो के सजा के बहाने से सिफ्फीन में जंग की जिसमें मुआविया हार गया। सन् 661 में कुफ़ा में एक मस्जिद में उस्मान के समर्थकों ने हज़रत अली (A.S) को धोखे से शहीद कर दिया गया। इसके बाद “मुआविया” ने अपने को इस्लाम का ख़लीफ़ा घोषित कर दिया ।
इस्लाम में प्रथम व ऐतिहासिक 151 तथ्य | 151 First and Historic Facts of Islam in Hindi
पर हज़रत अली (A.S) की बसीयत के मुताबिक अगले खलीफ़ा उनके पुत्र हजरत इमाम हसन अल्य्हिस्सलाम को होना चाहिये था । हज़रत अली (A.S) और सैद्धांतिक रूप से मुहम्मद साहब (PBUH) के रिश्तेदारों के समर्थकों ने उनके पुत्र हजरत इमाम हसन के प्रति निष्ठा दिखाई, लेकिन ज्यादातर उनका साथ छोड़ गए। हजरत इमाम हसन ने जंग न की बल्कि “मुआविया” को सन्धि करनी पड़ी। उसने वही सवाल इमाम हसन अल्य्हिस्सलाम के सामने रखा :- या तो युद्ध या फिर अधीनता । इमाम हसन ने अधीनता स्वीकार नहीं की परन्तु वो मुसलमानो का खून भी नहीं बहाना चाहते थे इस कारण वो युद्ध से दूर रहे। अब “मुआविया” भी किसी भी तरह सत्ता चाहता था तो इमाम हसन से सन्धि करने पर मजबूर हो गया। इमाम हसन ने अपनी शर्तो पर उसको सिर्फ सत्ता सौंपी पर वो इमाम बने रहे ।
इन शर्तो मे से कुछ ये हैं: –
- वो सिर्फ सत्ता के कामों तक सीमित रहेगा यानि धर्म में कोई हस्तक्षेप नही कर सकेगा ।
- वो अपने जीवन तक ही सत्ता मे रहेगा मरने से पहले किसी को उत्तराधिकारी न बना सकेगा ।
- उसके मरने के बाद इमाम हसन खलीफ़ा होगे। यदि इमाम हसन की मृत्यु हो जाये तो इमाम हुसैन को खलिफा माना जायगा ।
- वो सिर्फ इस्लाम के कानूनों का पालन करेगा ।
इस प्रकार की शर्तो के द्वारा वो सिर्फ नाम मात्र का शासक रह गया। उसके वंश का शासन 750 इस्वी तक रहा और उन्हें “उमय्यद” Umayyad dynasty कहा गया ।
इमाम अली के बाद ४७ साल की आयु मे हजरत इमाम हसन अल्य्हिस्सलाम ख़लीफ़ा का पद सम्हाला । हजरत इमाम हसन केवल 6 माह तक ही खलीफा रहे जिसके पाश्चात आपने “मुआविया” से सन्धि के पश्चात राजनैतिक शासन से त्याग पत्र दे दिया मगर आप अपने अनुइयओ का मार्गदर्शन इमाम के सम्मानित पद के अन्तर्गत करते रहे जो आपके पास हज़रत अली (A.S) के पश्चात आया था। पर हजरत इमाम हसन अल्य्हिस्सलाम को “मुआविया” ने जहर देकर शहीद कर दिया।
कर्बला का युद्ध :
हजरत इमाम हसन के वसीयत के अनुसार आपके पश्चात हजरत इमाम हुसैन ने इमाम के पद को सम्भला । जब “मुआविया” के दुराचारी पुत्र “याजिद” का समर्थन करने से ्पष्ट रुप से मना कर दिया तब 10 अक्टूबर 680 (10 मुहर्रम 61 हिजरी) को कर्बला का युद्ध हुआ । करबला, इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा है । इसमें एक तरफ 72 (शिया मत के अनुसार 123 यानी 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे शामिल थे) और दूसरी तरफ 40,000 “मुआविया” के बेटे याजीद की की सेना थी ।
हजरत इमाम हुसैन और उनके परिवार को पानी 3 दिन पहले से ही बन्द था । इस दर्दनाक युद्ध मे हजरत इमाम हुसैन को पूरे परिवार सहित शाहिद कर दिया गया, जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे। और तभी से तमाम दुनिया के ना सिर्फ़ मुसलमान बल्कि दूसरी क़ौमों के लोग भी इस महीने में हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उनकी याद करते हैं और मुहर्रम मनाते हैं ।
हजरत इमाम हुसैन की शहादत के बाद हज़रत अली (A.S) और उनके बेटे और हजरत मुहम्मद साहब (PBUH) के नवासे हजरत इमाम हसन और हजरत इमाम हुसैन को मानने वाले शिया कहलाये ।
दुनिया भर के सुन्नी मुसलमान और उनके आतंकवादी संगठन (अल-कायदा, तालिबान, ISIS और बोको-हरम etc ) शान्तिप्रिय और सहिष्णु शिया कौम को आज भी मिटाने की कोशिश मे लगे हैं पर हज़रत अली (A.S) का करम हम हुसैनियों पर कायम है … या अली
मैं मुस्लिम विरोधी हु और आज इस प्लेटफॉर्म पर शर्मिंदा हु। मुझे यह पढ़कर ज्ञात हुआ की जो शिया वास्तविक मुसलमान है, सुन्नी जो सोचते है वो धर्म विरुद्ध है। वास्तविक इस्लाम वो ही है जो आप शिया मानते हो। राजतांत्रिक व्यवस्था यही कहती है की उत्तराधिकारी पुत्र या दामाद होना चाहिए ना की ससुर।
इस्लाम को गलत समझने की भूल पर एक बार फिर क्षमा। मगर ये समझ नही आया की हजरत अली को मानने वाले शिया कहलाये तो सुन्नी किसे अपना आदर्श मानते है।
श्री प्रकाश जी, पढने और कमेंट हेतु धन्यवाद |
“इस्लाम को गलत समझने की भूल” यह तो विमर्श का विषय है पर शिया और सुन्नी के विवाद के विषय से इस्लाम के सही और गलत का विमर्श नहीं हो सकता| इस्लाम जहाँ भी है वहां मानवता सर्वर्त्र त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही है|
खैर सुन्नी मुसलमानों के लिए पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के बाद, सन् ६३२ से लकर सन् ६६१ के मध्य के खलीफ़ा (प्रधानों) को राशिदून या अल खलीफ़ उर्र-राशिदून (सही दिशा में चलते हुए) कहते हैं। कार्यकाल के अनुसार ये चार खलीफ़ा हैं –
अबु बकर (632-634)
उमर बिन अल ख़तब (634-644)
उस्मान बिन अफ़न (644-656)
अली बिन अबि तालिब (656-661)
जबकि शियाने अली का उपरोक्त में विश्वास नहीं है और न ही वो उनके हुक्म को मानते हैं | सुन्नी मुसलमानों ने संसार में हमेशा से ही दमनकारी निति अपनाई है |
Shiya is real Islam
islam ka ek hi maksad hai islam ko pure sansar main falana chey kyo na market karny pade ye ajkal ho raha hai ye huro wali kayamat wali bat bhi un practival hai.
Ye post ek Hindu ne likha hai aur iske likhne ke tarike se saaf pata chalta hai ki ye kya chahta hai shia aur sunni me fut dalna aur jis tarah se isne pure story ko tor maror ke likha hai jisse ye Hindu chahta hai ki zyada jansankhya wale musalman ko mitaya Jaye baad me ye Shia ko bhi maar dega iski soch aisi hi hai iske comment padho yakeen nahi hai to.
Shia Sunni ek ho jao ye Hindu ki chaal hai.