कच्ची मिट्टी के दीपक भारत का पहला DIY प्रशिक्षण
एक और जहां अमेरिका और चीन DIY (डू इट योरसेल्फ) किट बनाकर बहुत बड़े बाजार में लोगों को स्वयं कई कार्य करने हेतु प्रोत्साहित कर रहे हैं तो दूसरी ओर भारत के हज़ार वर्षों से स्थापित DIY परंपरा के खात्मे को देखते हुए दुःख होता है। दीपावली पर अपने ग्राम देवता को दीपदान करने के क्रम में हजारों दीयों में यह कच्ची मिट्टी का केवल एक दिया ही मिला।
संध्या में दीप जलाने की परंपरा:
मुझे याद है की संध्या में दीप जलाने की परंपरा में दादी के समय ऐसे दिए घर पर ही बहुतायत बनाए जाते थे और घी में डूबी हुई कपास के फूल बत्तियां उसमे रख कर जलाई जाती थी। इन कच्चे दीयों का पुनर्चक्रीकरण एक दिन का होता था। साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती थी जिससे कि कृषि पर इसका दुष्परिणाम नहीं होता था। मिट्टी को पकाने के बाद उस की उर्वरा शक्ति खत्म हो जाती है और यह विचार हमारे पूर्वजों ने किया इसीलिए समाज के सस्टेनेबल डेवलपमेंट का विचार करते हुए नित्य प्रयोग हेतु कच्चे मिट्टी के दीयों का प्रयोग किया।
कुम्हार की चाक पर दीए बनाते:
भारत के शहरों में रहने वाले बहुत सारे लोग छुट्टियां मनाने फार्म हाउस में जाते हैं वहां अपने बच्चों के साथ कुम्हार की चाक पर दीए बनाते हैं। क्यों ना दीपावली के अवसर पर बच्चों को कच्चे दिए बनाने का टास्क देकर उनका कौशल विकास किया जाए। यही तो अमेरिका और चीन के द्वारा DIY के रूप में भारत में आ रहा है। भारत के हिंदू समाज ने जीवन के अभिन्न आवश्यकता की वस्तुओं के लिए एक स्वावलंबी ढांचा तैयार किया था जो किसी भी आर्थिक समीकरण में नहीं बंधा था और वह बाजारवादी व्यवस्था से मुक्त रखी जाती थी।
कृत्रिम गरीबी का एहसास:
एक परिवार के रूप में हमें आज के समय में भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि परिवार के अति आवश्यक उपभोग की कितनी वस्तुएं हैं जिसे हम बाजार तंत्र से मुक्त रखते हुए स्वावलंबी रूप से कर पा रहे हैं। अन्यथा हम और आप कमाने की इस अंतहीन दौड़ में अनंत काल तक भागते रहेंगे और बाजारवादी शक्तियां उसी अनुपात में आगे बढ़ते हुए हमें एक कृत्रिम गरीबी का एहसास दिलाती रहेंगी। आसान शब्दों में यही बात समझाऊं तो यह ऐसे ही अंतहीन विडंबना है कि जैसे आप एप्पल का एक महंगा मोबाइल खरीदते हैं और 8 महीने बाद एक नया मॉडल बाजार में आकर आपके उसके मोबाइल के साथ आपको नए ट्रेंड से आउटडेट कर देता है।